मानसरोवर भाग 1

5 – शिकारी-राजकुमार

– लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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मई का महीना और मध्याह्न का समय था । सूर्य की आँखें सामने से हट कर सिर पर जा पहुँची थीं , इसलिए उनमें शील न था । ऐसा विदित होता था मानों पृथ्वी उसके भय से थर-थर काँप रही थी । ठीक ऐसे ही समय एक मनुष्य एक हिरन के पीछे उन्मुत्त भाव से घोड़ा फेंके चला आता था । उसका मुँह लाल हो रहा था और घोड़ा पसीने से लथ-पथ । किंतु मृग भी ऐसा भागता था मानो वायुवेग से जा रहा था । ऐसा प्रतीत होता था कि उसके पद स्पर्श नहीं करते । इसी दौड़ की जीत-हार पर उसका जीवन निर्भर था । पछुआ हवा बड़े जोर से चल रही थी । ऐसा जान पड़ता था मानो अग्नि और धूल की वर्षा हो रही हो । घोड़े के नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे और अश्वारोही के सारे शरीर का रुधिर उबल-सा रहा था । किंतु मृग का भागना उसे इस बात का अवसर न देता था कि वह अपनी बन्दूक को सम्हाले । कितने ही ऊख के खेत ठाक के वन और पहाड़ सामने पड़े और तुरन्त ही `सपनेकी सम्पत्ति’ की भाँति अदृश्य हो गये । क्रमशः मृग पीछे की ओर मुड़ा । सामने एक नदी का बड़ा ही ऊँचा कगार दीवार की भाँति खड़ा था । आगे भागने की राह बंद थी, और उस पर से कूदना मानो मृत्यु के मुख में कूदना था । हिरन का शरीर शिथिल पड़ गया । उसने एक करुणा-भरी दृष्टि चारों ओर फेरी । किंतु उसे हर तरफ मृत्यु ही मृत्यु दृष्टि गोचर होती थी । अश्वारोही के लिए इतना समय बहुत था । उसकी बन्दूक से गोली क्या छूटी मानों मृत्यु ने एक महा भयंकर जयध्वनि के साथ अग्नि की एक प्रचंड ज्वाला उगल दी । हिरन भूमि पर लेट गया ।

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मृग पृथ्वी पर पड़ा तड़प रहा था और अश्वारोही की भयंकर और हिंसा-प्रिय आँखों से प्रसन्नता की ज्योति निकल रही थी । ऐसा जान पड़ता था कि उसने असाध्य साधन कर लिया । उसने उस पशु के शव को नापने के बाद उसके सींगों को बड़े ध्यान से देखा । और मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि इससे कमरे की सजावट दूनी हो जायगी और नेत्र सर्वदा उस सजावट का आनंद सुख से भोगेंगे । जब तक वह इस ध्यान में मग्न था उसको सूर्य की प्रचंड किरनों का लेशमात्र भी ध्यान न था ; किंतु ज्यों ही उसका ध्यान उधर से फिरा, वह उष्णता से विह्वल हो उठा और करुणा पूर्ण आँखें नदी की ओर डाली; लेकिन वहाँ तक पहुँचने का कोई मार्ग न देख पड़ा और न कोई वृक्ष ही देख पड़ा, जिसकी छाँह में जरा विश्राम करता । इसी चिंता में एक अति दीर्घकाया पुरुष नीचे से उछल कर कगारे के ऊपर आया और अश्वा रोही के सम्मुख खड़ा हो गया । अश्वारोही उसको देख बहुत अचंभित हुआ । नवागंतुक एक बहुत ही सुंदर और हृष्ट-पुष्ट मनुष्य था । मुख के भाव उस हृदय की स्वच्छता और चरित्र की निर्मलता का पता देते थे । वह बहुत ही दृढ़प्रतिज्ञ, आशा-निराशा तथा भय से बिलकुल बेपरवाह सा जान पड़ता था । मृग को देखकर उस सन्यासी ने बड़े स्वाधीन भाव से कहा -राजकुमार, तुम्हे आज बहुत ही अच्छा शिकार हाथ लगा । इतना बड़ा मृग इस सीमा में कदाचित ही दिखायी पड़ता है। राजकुमार के अचम्भे की सीमा न रही । उसने देखा कि साधु उसे पहचानता है । राजकुमार बोला- जी हाँ, मैं भी यही खयाल करता हूँ । मैंने भी आज तक इतना बड़ा हिरन नहीं देखा । लेकिन इसके पीछे आज बहुत हैरान होना पड़ा । संन्यासी ने दयापूर्वक कहा- निःसंदेह तुम्हे दुख उठाना पड़ा होगा तुम्हारा मुख लाल हो रहा है और घोड़ा भी बेदम हो गया । क्या तुम्हारे संगी बहुत पीछे रह गये । इसका उत्तर राजकुमार ने बिलकुल बेपरवाही से दिया. मानो उसे इसकी कुछ भी चिंता न थी । संन्यासी ने कहा – यहाँ ऐसी कड़ी धूप और आँधी में खड़े तुम कब तक उनकी राह देखोगे ? मेरी कुटी में चल कर जरा विश्राम कर लो । तुम्हें परमात्मा ने ऐश्वर्य दिया है, लेकिन कुछ देर के लिए संन्यासाश्रम का रंग भी देखो और वनस्पतियों और नदी के शीतल जल का स्वाद लो । यह कह कर संन्यासी ने उस मृग के रक्तमय मृत शरीर को ऐसी सुगमता से उठा कर कंधे पर धर लिया मानो वह एक घास का गट्ठा था, और राजकुमार से कहा – मैं तो प्रायः कगार से ही नीचे उतर जाया करता हूँ, किंतु तुम्हारा घोड़ा सम्भव है, न उतर सके । अतएव दिन की राह छोड़ कर छह मास की राह चलेंगे । घाट वहाँ से थोड़ी ही दूर है और वहीं मेरी कुटी है । राजकुमार संन्यासी के पीछे चला । उसे सन्यासी के शरीर बल पर अचम्भा हो रहा था । आध घंटे तक दोनों चुपचाप चलते रहे । इसके बाद ढालू भूमि मिलनी शुरु हुई और थोड़ी देर में घाट आ पहुँचा । वहीं कदम्ब-कुंज की धनी छाया में जहाँ सर्वदा मृगों की सभा सुशोभित रहती, नदी की तरंगो का मधुर स्वर सर्वदा सुनायी दिया करता है, जहाँ हरियाली पर मयूर थिरकता, कपोतादि पक्षी मस्त हो कर झूमते, लता-द्रुमादि से सुशोभित सन्यासी की एक छोटी-सी कुटी थी ।

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सन्यासी की कुटी हरे-भरे वृक्षों के नीचे सरलता और संतोष का चित्र बन रही थी । राजकुमार की अवस्था वहाँ पहुँचते ही बदल गयी थी । यहाँ की शीतल वायु का प्रभाव उस पर ऐसा पड़ा जैसा मुरझाते हुए वृक्ष पर वर्षा का। उसे आज विदित हुआ कि तृप्ति कुछ स्वादिष्ट व्यंजनों ही पर निर्भर नहीं है । और न निद्रा सुनहरे तकियों की ही आवश्यकता रखती है । शीतल, मंद, सुगंध वायु चल रही थी । सूर्य भगवान अस्ताचल को पयान करते हुए इस लोक को तृषित नेत्रों से देखते जाते थे और सन्यासी एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ गा रहा था । ~ऊधो कर्मन की गति न्यारी” राजकुमार के कानों में स्वर की भनक पड़ी, उठ बैठा और सुनने लगा । उसने बड़े-बड़े कलावंतों के गाने सुने थे, किंतु आज जैसा आनंद उसे कभी प्राप्त ही हुआ था । इस पद ने उसे उसके ऊपर मानो मोहिनी-मंत्र का जाल बिछा दिया । वह बिलकुल बेसुध हो गया । सन्यासी की धुन में कोयल की कूक सरीखी मधुरता थी । सम्मुख नदी का जल गुलाबी चादर की भाँति प्रतीत होता था । कूल द्वय की रेत चंदन की चौकी-सी दीखती थी । राजकुमार को यह दृश्य स्वर्गीय-सा जान पड़ने लगा । उस पर तैरने वाले जल-जंतु ज्योतिर्मय आत्मा के सदृश देख पड़ते थे, जो गाने का आनन्द उठा कर मत्त-से हो गये थे । जब गाना समाप्त हो गया, राजकुमार जा कर सन्यासी के सामने बैठ गया और भक्तिपूर्वक बोला- महात्मन् ! आपका प्रेम और वैराग्य सराहनीय है । मेरे हृदय पर इसका जो प्रभाव पड़ा है, वह चिरस्थायी रहेगा । यद्यपि सम्मुख प्रशंसा करना अनुचित है, किंतु इतना मैं अवश्य कहूँगा कि आपके प्रेम की गम्भीरता सराहनीय है । यदि मैं गृहस्थी के बंधन में न पड़ा होता तो आपके चरणों से पृथक होने का ध्यान स्वप्न में भी न करता । इसी अनुरागावस्था में राजकुमार कितनी ही ऐसी बातें कह गया जो कि स्पष्टरूप से उसके आंतरिक भावों का विरोध करती थीं । सन्यासी मुस्करा कर बोला-तुम्हारी बातों से मैं बहुत प्रसन्न हूँ । और मेरी उत्कट इच्छा है कि तुमको कुछ ठहराऊँ, किंतु यदि मैं जाने भी दूँ तो इस सूर्यास्त के समय तुम जा नहीं सकते । तुम्हारा रीवाँ पहुँचना दुष्कर हो जायगा । तुम जैसे आखेट-प्रिय हो वैसा मैं भी हूँ । हम दोनों को अपने- अपने गुण दिखाने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है । कदाचित तुम भय से न रुकते, किंतु शिकार के लालच से अवश्य रहोगे । राजकुमार को तुरंत ही मालूम हो गया कि जो बातें उन्होंने अभी-अभी सन्यासी से कही थीं, वे बिलकुल ऊपरी और दिखावे की थीं और हार्दिक भाव उनसे प्रगट नहीं हुए थे । आजन्म सन्यासी के समीप रहना तो दूर, वहाँ एक रात बिताना उसको कठिन जान पड़ने लगा ।घरवाले उद्विग्न हो जायँगे और मालूम नहीं क्या सोचेंगे । साथियों की जान संकट में होगी । घोड़ा बेदम हो रहा है । उस पर चालीस मील जाना बहुत कठिन और बड़े साहस का काम है । लेकिन यह महात्मा शिकार खेलते हैं – यह बड़ी अजीब बात है । कदाचित् यह वेदान्ती है,ऐसे वेदांती जो जीवन और मृत्यु मनुष्य के हाथ नहीं मानते । इनके साथ शिकार में बड़ा आनन्द आवेगा । यह सब सोच-विचार कर उन्होंने संन्यासी का आतिथ्य स्वीकार किया, उन्हें धन्यवाद दिया और अपने भाग्य की प्रशंसा की, जिसने उन्हें कुछ काल तक और साधु संग से लाभ उठाने का अवसर दिया ।

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रात दस बजे का समय था । घनी अँधियारी छाई हुई थी । संन्यासी ने कहा- अब हमारे चलने का समय हो गया है । राजकुमार पहले ही से प्रस्तुत था । बंदूक कंधे पर रखकर बोला – इस अंधकार में शूकर अधिकतर मिलेंगे किंतु ये पशु बड़े भयानक हैं । सन्यासी ने एक सोटा हाथ में लिया और कहा – कदाचित इससे भी अच्छे शिकार हाथ आवें । मैं जब अकेला जाता हूँ, कभी खाली हाथ नहीं लौटता । आज तो हम दो हैं । दोनों शिकारी नदी के तट पर नालों और रेतों के टीलों को पार करते और झाड़ियों से अटकते चुपचाप चले जा रहे थे । एक ओर श्यामवर्ण नदी थी ,जिसमें नक्षत्रों का प्रतिबिंब नाचता दिखायी देता था और लहरें गान कर रही थीं । दूसरी ओर घनघोर अंधकार, जिसमें कभी-कभी केवल खद्योतों के चमकने से एक क्षणस्थायी प्रकाश फैल जाता था । मालूम होता था कि वे भी अँधेरे में निकलने से डरते हैं । ऐसी अवस्था में कोई एक घंटा चलने के बाद वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ एक ऊँचे टीले पर घने वृक्षों के नीचे आग जलती दिखायी पड़ी । उस समय इन लोगों को मालूम हुआ कि संसार में इनके अतिरिक्त और भी कई वस्तुएँ हैं। सन्यासी ने ठहरने का संकेत किया दोनों एक पेड़ की ओट में खड़े हो कर ध्यानपूर्वक देखने लगे । राजकुमार ने बंदूक भर ली । टीले पर एक बड़ा छाया दार वट-वृक्ष था । उसी के नीचे अंधकार में दस-बारह मनुष्य अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित मिर्जई पहने चरस का दम लगा रहे थे । इनमें से प्रायः सभी लम्बे थे सभी के सीने चौड़े और सभी हृष्ट=पुष्ट । मालूम होता था कि सैनिकों का एक दल विश्राम कर रहा है । राजकुमार ने पूछा- यह लोग शिकारी हैं ? संन्यासी ने धीरे से कहा बड़े शिकारी हैं । ये राह चलते यात्रियों का शिकार करते हैं । ये बड़े भयानक हिंस्त्र पशु हैं । इनके अत्याचार से गाँव के गाँव बर्बाद हो गये और जितनों को इन्हौंने मारा है, उनका हिसाब परमात्मा ही जानता है । यदि आपको शिकार करना हो तो इनका शिकार कीजिए । ऐसा शिकार आप बहुत प्रयत्न करने पर भी नहीं पा सकते । यही पशु हैं, जिन पर आपको शस्त्रों का प्रहार करना उचित है । राजाओं और अधिकारियों के शिकार यही हैं । इससे आपका नाम और यश फैलेगा । राजकुमार के जी में आया कि दो-एक को मार डालें, किंतु सन्यासी ने रोका और कहा – इन्हें छेड़ना ठीक नहीं । अगर यह कुछ उपद्रव न करें, तो भी बच कर निकल जायँगे । आगे चलो, सम्भव है कि इससे भी अच्छे शिकार हाथ आवें । तिथि सप्तमि थी । चंद्रमा भी उदय हो आया । इन लोगों ने नदी का किनारा छोड़ दिया था । जंगल भी पीछे रह गया था । सामने एक कच्ची सड़क दिखायी पड़ी और थोड़ी देर में कुछ बस्ती भी देख पड़ने लगी । सन्यासी एक विशाल प्रसाद के सामने आ कर रुक गये और राजकुमार से बोले – आओ, इस मौलसरी के वृक्ष पर बैठें । परंतु देखना बोलना मत । नहीं तो दोनों की जान के लाले पड़ जायेंगे । इसमें एक बड़ा भयानक हिस्र जीव रहता है, जिसने अन गिनत जीव धारियों का बध किया है । कदाचित हम लोग आज इसको संसार से मुक्त कर दें राजकुमार बहुत प्रसन्न हुआ । सोचने लगा, चलो, रात भर की दौड़े तो सुफल हुई । दोनों मौलसरी पर चढ़ कर बैठ गये । राजकुमार ने अपनी बंदूक सँभाल ली । और शिकार की, जिसे वह तेंदुआ समझे हुए था , बाट देखने लगा । रात आधी से अधिक व्यतीत हो चुकी थी । यकायक महल के समीप कुछ हलचल मालूम हुई और बैठक के द्वार खुल गये । मोमबत्तियों के जलाने से सारा हाता प्रकाशमान हो गया । कमरे के हर कोने में सुख की सामग्री दिखायी दे रही थी । बीच में एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य गले में एक रेशमी चादर डाले, माथे पर केसर का अर्ध लम्बाकार तिलक लगाये, मसनद के सहारे बैठा सुनहरी मुँहनाल से लच्छेदार धुँआ फेंक रहा था । इतने ही में उन्होंने देखा कि नर्तकियों के दल के दल चले आ रहे हैं । उनके हाव-भाव व कटाक्ष के शर चलने लगे । समाजियों ने सुर मिलाया । गाना आरम्भ हुआ और साथ ही साथ मद्यपान भी चलने लगा । राजकुमार ने अचंभित हो कर पूछा – यह तो कोई बहुत बड़ा रईस जान पड़ता है ? संन्यासी ने उत्तर दिया – नहीं, यह रईस नहीं हैं, एक बड़े मंदिर के महंत हैं, साधु हैं । संसार का त्याग कर चुके हैं । सांसारिक वस्तुओं की ओर आँख नहीं उठाते, पूर्ण ब्रह्मज्ञान की बातें करते हैं । यह सब सामान इनकी आत्मा की प्रसन्नता के लिए है । इंद्रियों को वश में किए हुए इन्हें बहुत दिन हुए । सहस्रों सीधे-सादे मनुष्य इन पर विश्वास करते हैं । उनको अपना देवता समझते हैं । यदि आप शिकार करना चाहते है तो इनका कीजिए । यही राजाओं और अधिकारियों के शिकार हैं । ऐसे रँगे हुए सियारों से संसार को मुक्त करना आपका परम धर्म है । इससे आपकी प्रजा का हित होगा तथा आपका नाम और यश पैलेगा ।

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दोनों शिकारी नीचे उतरे । सन्यासी ने कहा – अब रात अधिक बीत चुकी है । तुम बहुत थक गये होगे । किंतु राजकुमारों के साथ आखेट करने का अवसर मुझे बहुत कम प्राप्त होता है । अतएव एक शिकार का पता और लगा कर तब लौटैंगे । राजकुमार को इन शिकारों में सच्चे उपदेश का सुख प्राप्त हो रहा था । बोला-स्वामी जी थकने का नाम न लीजिए । यदि मैं वर्षों आपकी सेवा में रहता तो और न जाने कितने ऐसे आखेट करना सीख जाता ! दोनों फिर आगे बढ़े । अब रास्ता स्वच्छ और चौड़ा था । हाँ, सड़क कदाचित कच्ची ही थी सड़क के दोनों ओर वृक्षों की पंक्तियाँ थी । किसी-किसी आम्र वृक्ष के नीचे रखवाले सो रहे थे । घंटे भर बाद दोनों शिकारियों ने एक ऐसी बस्ती में प्रवेश किया, जहाँ की सड़कों, लालटेनों और अट्टालिकाओं से मालूम होता था कि कोई बड़ा नगर है । संन्यासी जी एक विशाल भवन के सामने एक वृक्ष के नीचे ठहर गये और राजकुमार से बोले – यह सरकारी कचहरी है । यहाँ राज्य का एक बड़ा कर्मचारी रहता है । उसे सूबेदार कहते हैं इसकी कचहरी दिन को भी लगती है और रात को भी । यहाँ न्याय सुवर्ण और रत्नादिकों के मोल बिकता है । यहाँ की न्यायप्रियता द्रव्य पर निर्भर है । धनवान दरिद्रों को पैरों तले कुचलते हैं और उनकी कोई भी नहीं सुनता । यही बातें हो रही थी कि यकायक कोठे पर दो आदमी दिखलायी पड़े दोनों शिकारी वृक्ष की ओट में छिप गये । सन्यासी ने कहा – शायद सूबेदार साहब कोई मामला तय कर रहें है । ऊपर से आवाज आयी, तुमने एक विधवा स्त्री की जायदाद ले ली है, मैं इसे भलीभाँति जानता हूँ । यह कोई छोटा मामला नहीं है । इसमें एक सहस्त्र से कम पर मैं बातचीत करना नहीं चाहता । राजकुमार में इससे अधिक सुनने की शक्ति न रही । क्रोध के मारे नेत्र लाल हो गये । यही जी चाहता था कि इस निर्दयी का अभी बध कर दें; किंतु सन्यासी जी ने रोका । बोले -आज शिकार का समय नहीं है । यदि आप ढूँढ़ेंगे तो ऐसे शिकार बहुत मिलेंगे ! मैंने इनके कुछ ठिकाने बतला दिये हैं । अब प्रातः काल होने में अधिक विलम्ब नहीं है । कुटी अभी यहाँ से दस मील होगी आइए, शीघ्र चलें ।

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दोनों शिकारी तीन बजते-बजते फिर कुटी में लौट आये । उस समय बड़ी सुहावनी रात थी । शीतल समीर ने हिला-हिला कर वृक्षों और पत्तों की निद्रा भंग करना आरम्भ कर दिया था आध घंटे में राजकुमार तैयार हो गये । संन्यासी को अपना विश्वास और कृतज्ञता प्रकट करते हुए उनके चरणों पर अपना मस्तक नवाया और घोड़े पर सवार हो गये । संन्यासी ने उनकी पीठ पर कृपा-पूर्वक हाथ फेरा । आशीर्वाद दे कर बोले-राजकुमार, तुमसे भेंट होने से मेरा चित्त बहुत प्रसन्न हुआ । परमात्मा ने तुम्हें अपनी सृष्टि पर राज करने के हेतु जन्म दिया है । तुम्हारा धर्म है कि सदा प्रजापालक बनो । तुम्हें पशुओं का बध करना उचित नहीं ।इन दीन पशुओं के बध करने में कोई बहादुरी नहीं कोई साहस नहीं । सच्चा साहस और सच्ची बहादुरी दीनों की रक्षा और उनकी सहायता करने में है । विश्वास मानो, जो मनुष्य केवल चित्त विनोदार्थ जीवहिंसा करता है, वह निर्दयी घातक से भी कठोर-हृदय है । वह घातक के लिए जीविका है, किंतु शिकारी के लिए केवल दिल बहलाने का एक सामान । तुम्हारे लिए ऐसे शिकारों की आवश्यकता है, जिससे तुम्हारी प्रजा को सुख पहुँचे । निःशब्द पशुओं का बध न करके तुमको उन हिंसको के पीछे दौड़ना चाहिए, जो धोखा-धड़ी से दूसरों का बध करते हैं । ऐसे आखेट करो जिससे तुम्हारी आत्मा को शांति मिले । तुम्हारी कीर्ति संसार में फैले । तुम्हारा काम बध करना नहीं, जीवित रखना है । यदि बध करो तो केवल जीवित रखने के लिए । यही तुम्हारा धर्म है । जाओ, परमात्मा तुम्हारा कल्याण करें ।

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