4 – सेवा-मार्ग
– लेखक – मुंशी प्रेमचंद
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तारा ने बारह वर्ष तक दुर्गा की तपस्या की ।न पलंग पर सोयी, न केशों को सँवारा और न नेत्रों में सुरमा लगाया । पृथ्वी पर सोती, गेरुआ वस्त्र पहनती और रूखी रोटियाँ खाती, उसका मुख मुरझायी कली की भाँति था, नेत्र ज्योति-हीन, और हृदय एक शून्य बीहड़ मैदान । उसे केवल यही लौ लगी थी कि दुर्गा के दर्शन पाऊँ । शरीर मोमबत्ती की तरह घुलता था । पर, यह लौ दिल से न जाती थी । यही उसकी इच्छा थी, यही उसका जीवनो- द्देश्य । घर के लोग उसे पागल कहते । माता समझाती -बेटी, तुझे क्या हो गया है ? क्या तू सारा जीवन रो-रो कर काटेगी ? इस समय के देवता पत्थर के होते हैं । पत्थर को भी कभी पिघलते देखा है ? देख तेरी सखियाँ पुष्प की भाँति विकसित हो रही है, नदी की तरह बढ़ रही है; क्या तुझे मुझ पर दया नहीं आती ? तारा कहती-माता, अब तो जो लगन लगी वह लगी । या तो देवी के दर्शन पाऊँगी, या यही इच्छा लिये हुए संसार से पयान कर जाऊँगी । तुम समझ लो मैं मर गई । इस प्रकार पूरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये और तब देवी प्रसन्न हुई रात्रि का समय था । तारा दुर्गा के पैरों पर माथा नवाये सच्ची भक्त का परिचय दे रही थी । यकायक उस पाषाणमूर्ति देवी के तन में स्फूर्ति प्रकट हुई । तारा के रोंगटे खड़े हो गये । वह धुँधला दीपक देदीप्यमान हो गया, मन्दिर में चित्ताकर्षक सुगंध फैल गयी और वायु में सजीवता प्रतीत होने लगी । देवी का उज्जवल रूप पूर्ण चंद्रमा की भाँति चमकने लगा । ज्योतिहीन नेत्र जगमगा उठे होंठ खुल गये । आवाज आयी-तारा, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ माँग क्या माँगती है ? तारा खड़ी हो गयी । उसका शरीर इस भाँति काँप रहा था जैसे प्रातःकाल के समय कम्पित स्वर में किसी कृषक के गाने की ध्वनि । उसे मालूम हो रहा था मानों बह वायु में उड़ी जा रही है । उसे अपने हृदय में उच्च विचार पूर्ण प्रकाश का आभास हो रहा था । उसने भक्ति-भाव से कहा, भगवती, तुमने मेरी बारह वर्ष की तपस्या पूरा की ; किस मुख से तुम्हारा गुणानुवाद गाऊँ। मुझे संसार की वे अलभ्य बस्तुएँ प्रदान हों जो इच्छाओं की सीमा और अभिलाषाओं का अंत है । मैं वह ऐश्वर्य चाहती हूँ जो सूर्य को भी मात कर दे । देवी ने मुस्करा कर कहा-स्वीकृत है । तारा – वह धन तो कालचक्र को भी लज्जित करे । देवी ने मुस्करा कर कहा – स्वीकृत है । तारा – वह सौंदर्य जो अद्वितीय हो । देवी ने मुस्कराकर कहा – यह भी स्वीकृत है ।
(2)
तारा कुँवरि ने शेष रात्रि जागकर व्यतीत की । प्रभातकाल के समय उसकी आँखें,क्षण भर के लिए, झपक गयीं । जागी तो देखा कि मैं सिर से पाँव तक हीरे व जवाहिरों से लदी हूँ उसके विशाल भवन के कलश आकाश से बातें कर रहे थे – सारा भवन संगमरमर से बना हुआ, अमूल्य पत्थरों से जड़ा हुआ । द्वार पर नौबत बज रही थी । उसके आनन्ददायक सुहावने शब्द आकाश में गूँज रहे थे । द्वार पर मीलों तक हरियाली छायी थी । दासियाँ स्वर्णा भूषणों से लदी हुई, सुनहरे कपड़े पहने हुए चारों ओर दौड़ती थीं । तारा को देखते ही वे स्वर्ण के लोटे और कटोरे लेकर दौड़ीं । तारा ने देखा कि मेरा पलँग हाथी-दाँत का है । भूमि पर बड़े कोमल बिछौने बिछे हुए हैं । सिरहाने की ओर एक बड़ा सुंदर शीशा रखा हुआ है । तारा ने उसमें अपना रूप देखा, चकित रह गयी । उसका सुंदर रूप देखा, चकित रह गयी । उसका सुन्दर रूप चंद्रमा को भी लज्जित करता था । दीवार पर अनेका नेक सुप्रसिद्ध चित्रकारों के मनमोहक चित्र टँगे थे । पर, ये सब के सब तारा की सुंदरता के आगे तुच्छ थे । तारा को अपनी सुंदरता का गर्व हुआ । वह कई दासियों को लेकर बाटिका में गयी । वहाँ की छटा देख कर वह मुग्ध हो गयी । वायु में गुलाब और केसर धुले हुए थे, रंग-बिरंगे के पुष्प, वायु के मंद-मंद झोंकों से, मतवालों की तरह झूम रहे थे । तारा ने एक गुलाब का फूल तोड़ लिया और उसके रंग और कोमलता को अपने अधर-पल्लव से समानता करने लगी । गुलाब में वह कोमलता न थी । वाटिका के मध्य में एक बिल्लोर जटित हौज था ।इसमें हंस और बतख किलोंले कर रहे थे । यकायक तारा को ध्यान आया, मेरे घर के लोग कहाँ हैं । दासियों से पूछा । उन्होंने कहा- श्रीमती, वे लोग पुराने घर में हैं । तारा ने अपनी अटारी पर जाकर देखा । उसे अपना पहला घर एक साधारण झोंपड़े की तरह दृष्टिगोचर हुआ । उसकी बहनें उसकी साधारण दासियों के समान भी न थी । माँ को देखा, वह आँगन में बैठी चरखा कात रही थी । तारा पहले सोचा करती थी कि जब मेरे दिन चमकेंगे तब मैं इन लोगों को भी अपने साथ रखूँगी और उनकी भली-भँति सेवा करूँगी । पर इस समय धन के गर्व ने उसकी पवित्र हार्दिक इच्छा को निर्बल बना दिया था । उसने घरवालों को स्नेह-रहित दृष्टि से देखा और तब वह उस मनोहर गान को सुनने चली गयी जिसकी प्रतिध्वनि उसके कानों में आ रही थी । एक बारगी जोर से धड़ाका हुआ; बिजली चमकी और बिजली की छटाओं में से एक ज्योति स्वरूप नवयुवक निकल कर तारा के सामने नम्रता से खड़ा हो गया । तारा ने पूछा -तुम कौन हो ? नवयुवक ने कहा – श्रीमती, मुझे विद्युतसिंह कहते हैं । मैं श्री मती का आज्ञाकारी सेवक हूँ । उसके विदा होते ही वायु के उष्ण झोंके चलने लगे । आकाश में एक प्रकाश दृष्टिगोचर हुआ । वह क्षणमात्र में उतर कर कुँवरि के समीप ठहर गया । उसमें से एक ज्वालामुखी मनुष्य ने निकल कर तारा के पदों को चूमा । ताराने पूछा-तुम कौन हो ? उत्तर दिया- श्रीमती, मेरा नाम अग्निसिंह हैं । मैं श्रीमती का आज्ञाकारी सेवक हूँ । वह अभी जाने भी न पाया था कि एक बारगी सारा महल ज्योति से प्रकाश मान हो गया । जान पड़ता था, सैकड़ों बिजलियाँ मिलकर चमक रही हैं । वायु सेवक हो गयी । एक जगमगाता हुआ आकाश पर दीख पड़ा । वह शीघ्रता से पृथ्वी की ओर चला और तारा कुँवरि के पास आकर ठहर गया । उससे एक प्रकाशमय रूप का बालक, जिनके रूप से गम्भीरता प्रगट होती थी, निकल कर तारा के सामने शिष्टभाव से खड़ा हो गया । तारा ने पूछा – तुम कौन हो ? बालक ने उत्तर दिया- श्रीमती, मुझे मिस्टर रेडियम कहते हैं । मैं श्रीमती का आज्ञापालक हूँ । धनी लोग तारा के भय से थर्राने लगे । उसके आश्चर्यजनक सौंदर्य ने संसार को चकित कर दिया । बड़े-बड़े महीपति उसकी चौखट पर माथा रगड़ने लगे । जिसकी ओर उसकी कृपा-दृष्टि हो जाती,वह अपना अहोभाग्य समझता-सदैव के लिए उसका बेदाम का गुलाम बन जाता । एक दिन तारा अपनी आनंदवाटिका में टहल रही थी । अचानक किसी के गाने का मनोहर शब्द सुनायी दिया । तारा विक्षिप्त हो गयी । उसके दरबार में संसार के अच्छे-अच्छे गवैये मौजूद थे, पर वह चित्ताकर्षकता, जो इन सुरों में थी, कभी अवगत न हुई थी । तारा ने गायक गायक को बुला भेजा । एक क्षण के अनंतर वाटिका में एक साधु आया, सिर पर जटाएँ शरीर में भस्म रमाये । उसके साथ एक टूटा हुआ बीन था । उसी से वह प्रभावशाली स्वर निकलता जो हृदयके अनुरक्त स्वरों से कहीं प्रिय था । साधु आकर हौज के किनारे बैठ गया । उसने तारा के सामने शिष्ट-भाव नहीं दिखाया । आश्चर्य से इधर-उधर दृष्टि नहीं डाली । उस रमणीय स्थान पर वह अपना सुर अलापने लगा । तारा का चित्त विचलित हो उठा । दिल में अपार अनुराग का संचार हुआ । मदमत्त हो कर टहलने लगी । साधु के सुमनोहर मधुर अलाप से पक्षी मग्न हो गये । पानी में लहरें उठने लगीं । वृक्ष झूमने लगे । तारा ने उन चित्ताकर्षक सुरों से एक चित्र खिंचते हुए देखा । धीरे-धीरे चित्र प्रगट होने लगा । उसमें स्फूर्ति आयी । और तब वह खड़ी हो कर नृत्य करने लगी । तारा चौंक पड़ी । उसने देखा कि यह मेरा ही चित्र है । नहीं, मैं ही हूँ । मैं ही बीन की तान पर नृत्य कर रही हूँ । उसे आश्चर्य हुआ कि मैं संसार की अलभ्य वस्तुओं की रानी हूँ अथवा एक स्वर-चित्र ! वह सिर धुनने लगी और मतवाली हो कर साधु के पैरों से जा लगी । उसकी दृष्टि में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया । सामने के फले-फूले वृक्ष और तरंगे मारता हुआ हौज, और मनोहर कुंज सब लोप हो गये । केवल वही साधु बैठा बीन बजा रहा था, और वह स्वयं उसकी तालों पर धिरक रही थी । वह साधु अब प्रकाशमान तारा और अलौकिक सौंदर्य की मूर्ति बन गया था । जब मधुर अलाप बंद हुआ तब तारा होश में आयी । उसका चित्त हाथ से जा चुका था । वह विलक्षण साधु के हाथों बिक चुकी थी । तारा बोली-स्वामी जी! यह महल, यह धन, यह सुख और सौंदर्य सब आपके चरण पर निछावर है । इस अँधेरे महल को अपने कोमल चरणों से प्रकाशमान कीजिए । साधु- साधुओं को महल और धन का क्या काम ? मैं इस घर में नहीं ठहर सकता । तारा – संसार के सारे सुख आपके लिए उपस्थित हैं । साधु – मुझे सुखों की कामना नहीं । तारा – मैं आजीवन आपकी दासी रहूँगी । यह कहकर तारा ने आईने में अपने अलौकिक सौंदर्य की छटा देखी और उसके नेत्रों में चंचलता आ गयी । साधु – नहीं तारा कुँवरि, मैं इस योग्य नहीं हूँ । यह कह कर साधु ने बीन उठाया और द्वार की ओर चला । तारा का गर्व टूक-टूक हो गया । लज्जा से सिर झुक गया । वह मूर्छित हो कर भूमि पर गिर पड़ी । मन में सोचा, मैं धनमें, ऐश्वर्य में, सौंदर्य में, जो अपनी समता नहीं रखती, एक साधु की दृष्टि में इतनी तुच्छ !!
(4)
तारा को अब किसी प्रकार चैन नहीं था । उसे अपना भवन, ऐश्वर्य भयानक मालूम होने लगा । बस, साधु का एक चंद्रस्वरूप उसकी आँखों में नाच रहा था और उसका स्वर्गीय गान कानों में गूँज रहा था । उसने अपने गुप्तचरों को बुलाया और साधु का पता लगाने की आज्ञा दी । बहुत छानबीन के पश्चात् उसकी कुटी का पता लगा । तारा नित्यप्रति, वायुयान पर बैठ कर, साधु के पास जाती । कभी उस पर लाल, जवाहिर लुटाती, कभी रत्न और आभूषण की छटा दिखाती । पर साधु इससे तनिक भी विचलित न हुआ। तारा के मायाजाल का उस पर कुछ भी असर न हुआ । तब तारा कुँवरि फिर दुर्गा के मंदिर में गयी और देवी के चरणों पर सिर रख कर बोली – माता, तुमने मुझे संसार के सारे दुर्लभ पदार्थ प्रदान किये मैंने समझा था कि ऐश्वर्य, सौंदर्य और वैभव का कुछ भी अधिकार नहीं । अब एक बार मुझ पर फिर वही कृपादृष्टि हो । कुछ ऐसा कीजिए कि जिस निष्ठुर के प्रेम में मै मरी जा रही हूँ, उसे भी मुझे देखे बिना चैन न आवे- उसकी आँखों में भी नींद हराम हो जाय, वह भी मेरे प्रेम-मद में चूर हो जाय । देवी के होंठ खुले । वह मुस्करायी, उसके अधर विकसित हुए बोली सुनायी दी-तारा, मैं संसार के सारे पदार्थ प्रदान कर सकती हूं, पर स्वर्गसुख मेरी शक्ति से बाहर है । `प्रेम’ स्वर्गसुख का मूल है । तारा – माता, संसार के सारे ऐश्वर्य मुझे जंजाल जान पड़ते हैं । बताइए, मैं अपने प्रीतम को कैसे पाऊँगी ? देवी – उसका एक ही मार्ग है । पर बहुत कठिन । भला, तुम उस पर चल सकोगी ? तारा – वह कितना ही कठिन हो, मैं उस मार्ग का अवलम्बन अवश्य करूँगी । देवी – अच्छा तो सुनो, वह सेवा-मार्ग है । सेवा करो, प्रेम सेवा ही से मिल सकता है।
(5)
तारा ने अपने बहुमूल्य आभूषणों और रंगीन वस्त्रों को उतार दिया । दासियों से विदा हुई । राजभवन को त्याग दिया, अकेले नंगे पैर साधु की कुटी में चली आयी और सेवा- मार्ग का अवलम्बन किया । वह कुछ रात रहे उठती । कुटी में झाडू देती । साधु के लिए गंगा से जल लाती । जंगली फूल तोड़ लाती और केले के पत्तल बना कर साधु के सम्मुख रखती । साधु नदी में स्नान करने जाया करते थे । तारा रास्ते के कंकर चुनती । उसने कुटी के चारों ओर पुष्प लगाये । गंगा से पानी लाकर सींचती । उन्हें हरा भरा देख कर प्रसन्न होती । उसने मदार की रूई बटौरी, साधु के लिए नर्म गद्दे तैयार किये । अब और कोई कामना न थी । सेवा स्वयं अपना पुरस्कार और फल थी । तारा को कई-कई दिन उपवास करना पड़ता था । हाथों में गट्ठे पड़ गये । पैर काँटों से चलनी हो गये । धूप से कोमल गात मुरझा गया; पर उसके हृदय में अब स्वार्थ और गर्व का शासन न था । अब प्रेम का राज था; वहाँ अब उस सेवा की लगन थी – जिससे कलुषता की जगह आनंद का स्त्रोत बहता है । और काँटे पुष्प बन जाते हैं; जहाँ अश्रु-धारा की जगह नेत्रों से अमृतराज की वर्षा होती और दुःख-विलाप की जगह आनंद के राग निकलते है जहाँ के पत्थर रूई से ज्यादा कोमल हैं और शीतल वायु से भी मनोहर । तारा भूल गयी कि मैं सौंदर्य में अद्वितीय हूँ । धन-विलासिनी तारा अब केवल प्रेम की दासी थी । साधु को वन के खगों से प्रेम था । वे कुटी के पास एकत्रित हो जाते । तारा उन्हें पानी पिलाती, दाने चुगाती, गोद लेकर उनका दुलार करती । विषधर साँप और भयानक जंतु उसके प्रेम के प्रभाव से उसके सेवक हो गये । बहुधा रोगी मनुष्य साधु के पास आशीर्वाद लेने आते थे । तारा रोगियों की सेवा- शुश्रूषा करती, जंगल से जड़ी -बूटियाँ ढूँढ़ लाती, उनके लिए औषधि बनाती, उनके घाव धोती, घावों पर मरहम रखती, रात भर बैठी उन्हें पंखा झलती । साधु के आशीर्वाद को उसकी सेवा प्रभावयुक्त बना देती थी । इस प्रकार कितने ही वर्ष बीत गये । गर्मी के दिन थे, पृथ्वी तवे की तरह जल रही थी । हरे-भरे वृक्ष सूखे जाते थे । गंगा गर्मी से सिमट गयी थी । तारा को पानी लेने के लिए बहुत दूर रेत में चलना पड़ता । उसका कोमल अंग चूर चूर हो जाता । जलती हुई रेत में तलवे भुन जाते । इसी दशा में एक दिन वह हताश हो कर एक वृक्ष के नीचे क्षण भर दम लेने के लिए बैठ गयी । उसके नेत्र बंद हो गये । उसने देखा, देवी मेरे सम्मुख खड़ी, कृपादृष्टि से मुझे देख रही है । तारा ने दौड़ कर उनके पदों को चूमा । देवी ने पूछा – तारा, तेरी अभिलाषा पूरी हुई ? तारा – हाँ माता, मेरी अभिलाषा पूरी हुई । देवी – तुझे प्रेम मिल गया ? तारा – नहीं माता, मुझे उससे भी उत्तम पदार्थ मिल गया । मुझे प्रेम के हीरे के बदले सेवा का पारस मिल गया । मुझे ज्ञान हुआ कि प्रेम सेवा का चाकर है । सेवा के सामने सिर झुका कर अब मैं प्रेम-भिक्षा नहीं चाहती । अब मुझे किसी दूसरे सुख की अभिलाषा नहीं । सेवा ने मुझे प्रेम, आदर, सुख सबसे निवृत्त कर दिया । देवी इस बार मुस्करायी नहीं । उसने तारा को हृदय से लगाया और दृष्टि से ओझल हो गयी ।
(6)
संध्या का समय था । आकाश में तारे ऐसे चमकते थे जैसे कमल पर पानी की बूँदें । वायु में चित्ताकर्षक शीतलता आ गयी थी । तारा एक वृक्ष के नीचे खड़ी चिड़ियों को दाना चुगाती थी कि यकायक साधु ने आकर उसके चरणों पर सिर झुकाया और बोला – तारा, तुमने मुझे जीत लिया । तुम्हारा ऐश्वर्य, धन और सौंदर्य जो कुछ न कर सका, वह तुम्हारी सेवा ने कर दिखाया । तुमने मुझे अपने प्रेम में आसक्त कर लिया । अब मैं तुम्हारा दास हूँ । बोलो, तुम मुझसे क्या चाहती हो ? तुम्हारे संकेत पर अब मैं अपना योग और वैराग्य सब कुछ न्यौछावर कर देने के लिए प्रस्तुत हूँ । तारा – स्वामी जी, मुझे अब कोई इच्छा नहीं । मैं केवल सेवा की आज्ञा चाहती हूँ । साधु- मैं दिखा दूँगा कि योग साध कर भी मनुष्य का हृदय निर्जीव नहीं होता । मैं भँवर के सदृश तुम्हारे सौंदर्य पर मँडराऊँगा । पपीहे की तरह तुम्हारे प्रेम की रट लगाऊँगा । हम दोनों प्रेम की नौका पर ऐश्वर्य और वैभव-नदी की सैर करेंगे, प्रेम- कुंजों में बैठ कर प्रेम-चर्चा करेंगे और आनन्द के मनोहर राग गावेंगे । तारा ने कहा – स्वामी जी, सेवा-मार्ग पर चल कर मैं अब अभिलाषाओं से पूरी हो गयी । अब हृदय में कोई इच्छा शेष नहीं । साधु ने इन शब्दों को सुना, तारा के चरणों पर माथा नवाया और गंगा की ओर चल दिया।
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