राग रामकली
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खेलत स्याम ग्वालनि संग ।
सुबल हलधर अरु श्रीदामा, करत नाना रंग ॥
हाथ तारी देत भाजत, सबै करि करि होड़ ।
बरजै हलधर ! तुम जनि, चोट लागै गोड़ ॥
तब कह्यौ मैं दौरि जानत, बहुत बल मो गात ।
मेरी जोरी है श्रीदामा, हाथ मारे जात ॥
उठे बोलि तबै श्रीदामा, जाहु तारी मारि ।
आगैं हरि पाछैं श्रीदामा, धर््यौ स्याम हँकारि ॥
जानि कै मैं रह्यो ठाढ़ौ छुवत कहा जु मोहि ।
सूर हरि खीझत सखा सौं, मनहिं कीन्हौ कोह ॥
भावार्थ ;— श्यामसुन्दर गोपकुमारों के साथ खेल रहे हैं । सुबल, बलरामजी और श्रीदामा आदि नाना प्रकारकी क्रीड़ा कर रहे हैं । सब परस्पर होड़ करके एक-दूसरेके हाथपर ताली मारकर भागते हैं । लेकिन श्रीबलराम मना करते हैं कि ‘श्यामसुन्दर ! तुम मत दौड़ो । तुम्हारे पैरोंमें चोट न लगे ।’ तब मोहन ने कहा ‘मैं दौड़ना जानताहूँ । मेरे शरीरमें बहुत बल है । मेरी जोड़ी श्रीदामा है, वह मेरे हाथपर ताली मारकर भागना चाहता है ।’ तब श्रीदामा बोल उठे -‘(अच्छा)तुम मेरे हाथ पर ताली मारकर भागो ।’ (इस प्रकार श्रीदामा के हाथपर ताली मार कर ) श्यामसुन्दर आगे-आगे दौड़े ( और उन्हें पकड़ने) पीछे-पीछे श्रीदामा दौड़े । उन्होंने ललकारकर श्याम को पकड़ लिया । (तब श्यामसुन्दर बोले-) ‘मैं तो जान-बूझकर खड़ा हो गया हूँ, (ऐसी दशामें) मुझे क्यों छूते हो ।’ सूरदासजी कहते हैं कि अपने मनमें रोष करके श्यामसुन्दर अब सखा से झगड़ रहे हैं ।