86. राग ललित – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग ललित

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नाहिनै जगाइ सकत, सुनि सुबात सजनी ।

अपनैं जान अजहुँ कान्ह मानत हैं रजनी ॥

जब जब हौं निकट जाति, रहति लागि लोभा ।

तन की गति बिसरि जाति, निरखत मुख-सोभा ॥

बचननि कौं बहुत करति, सोचति जिय ठाढ़ी ।

नैननि न बिचारि परत देखत रुचि बाढ़ी ॥

इहिं बिधि बदनारबिंद, जसुमति जिय भावै ।

सूरदास सुख की रासि, कापै कहि आवै ॥

भावार्थ / अर्थ :– (माता यशोदा किसी गोपी से कहती हैं-) ‘सखी! मेरी यह सुन्दर बात सुनो ! मैं मोहनको जगा नहीं पाती हूँ और मेरा यह कन्हाई अपनी समझसे अभी रात्रि ही मान रहा है । जब-जब मैं उसके पास जाती हूँ तब-तब मैं लोभ (स्नेह) के वश ठिठककर रह जाती हूँ, उसके मुखकी छटा देखते ही शरीरकी दशा भी भूल जाती हूँ, खड़ी-खड़ी मनमें विचार करती हूँ, बोलनेका बहुत प्रयत्न करती हूँ; किन्तु नेत्रों को तो समझदारी आती नहीं ( सोते हुए श्यामकी छबि) देखते हुए उनकी रुचि बढ़ती ही जाती है ।’ सूरदासजी कहते हैं कि मैया यशोदा को अपने लालका कमलमुख इस प्रकार प्रिय लगता है, वह है ही आनन्दराशि, उसका वर्णन भला किससे हो सकता है ।