213. राग बिलावल – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग बिलावल

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करहु कलेऊ कान्ह पियारे !

माखन-रोटी दियौ हाथ पर, बलि-बलि जाउँ जु खाहु लला रे ॥

टेरत ग्वाल द्वार हैं ठाढ़े, आए तब के होत सबारे ।

खेलहु जाइ घोष के भीतर, दूरि कहूँ जनि जैयहु बारे ॥

टेरि उठे बलराम स्याम कौं, आवहु जाहिं धेनु बन चारे ।

सूर स्याम कर जोरि मातु सौं, गाइ चरावन कहत हहा रे ॥

भावार्थ / अर्थ :– ‘प्यारे कन्हाई! कलेऊ कर लो ।’ (यह कहकर माताने) हाथपर मक्खन रोटी दे दी ( और बोलीं)’लाल ! तुम पर बार-बार बलि जाती हूँ, खा लो! सबेरा होते ही सब गोपबालक आ गये थे, तभीसे द्वारपर खड़े तुम्हें पुकार रहे हैं । जाओ, गाँवके भीतर खेलो ! अभी तुम बच्चे हो, कहीं दूर मत जाना ।'(इतनेमें) बलरामजी श्यामको पुकार उठे -‘आओ, वनमें गायें चराने चलें ।’ सुरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दर दोनों हाथ जोड़कर मातासे गाये चरानेकी आज्ञा के लिये अनुनय-विनय कर रहे हैं ।

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मैया री मोहि दाऊ टेरत ।

मोकौं बन-फल तोरि देत हैं, आपुन गैयनि घेरत ॥

और ग्वाल सँग कबहुँ न जैहौं, वै सब मोहि खिझावत ।

मैं अपने दाऊ सँग जैहौं, बन देखैं सुख पावत ।

आगें दै पुनि ल्यावत घर कौं, तू मोहि जान न देति ।

सूर स्याम जसुमति मैया सौं हा-हा करि कहै केति ॥

भावार्थ / अर्थ :– (श्यामसुन्दर कहते हैं-) ‘ अरी मैया! मुझे दाऊ दादा पुकार रहे । मुझे वे वनके फल तोड़-तोड़कर दिया करते हैं और स्वयं गायें हाँकते-घेरते हैं । दूसरे गोपकुमारोंके साथ कभी नहीं जाऊँगा, वे सब मुझे चिढ़ाते हैं । मैं अपने दाऊ दादाके साथ जाऊँगा, वन देखनेसे मुझे आनन्द मिलता है । फिर वे मुझे आगे करके ले आते हैं । परंतु तू जो मुझे जाने नहीं देती ।’ सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दर मैया यशोदासे कितनी ही अनुनय करके कह रहे हैं ।