193. राग गौरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग गौरी

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निरखि स्याम हलधर मुसुकाने।

को बाँधे, को छोरे इनकौं, यह महिमा येई पै जाने ॥

उपतपति-प्रलय करत हैं येई, सेष सहस मुख सुजस बखाने ।

जमलार्जुन-तरु तोरि उधारन पारन करन आपु मन माने ॥

असुर सँहारन, भक्तनि तारन, पावन-पतित कहावत बाने ।

सूरदास-प्रभु भाव-भक्ति के अति हित जसुमति हाथ बिकाने ॥

भावार्थ / अर्थ :– श्यामसुन्दरको देखकर बलरामजी मुसकरा उठे (और बोले) -‘इन्हें कौन बाँध सकता है और कौन इनको खोल सकता है ? अपना यह माहात्म्य (यह लीला) यही समझते हैं । ये ही सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय भी करते हैं । शेषजी सहस्त्र मुखोंसे इनके सुयशका वर्णन करते हैं । यमलार्जुनके वृक्षोंको तोड़ (उखाड़कर) उनका उद्धार करने के लिए यह सब करना (अपने को बँधवाना) इनको स्वयं अच्छा लगा है । ये असुरोंका संहार करने वाले हैं ,भक्तोंके उद्धारक हैं, पतितपावन इनका स्वरुप ही कहा जाता है ।’सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी तो अत्यन्त भावपूर्वक भक्ति करनेके कारण (प्रेमपरवश) होकर श्रीयशोदाजी के हाथ बिक गये हैं ।