199. राग केदारौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग केदारौ

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जसुमति कहति कान्ह मेरे प्यारे , अपनैं ही आँगन तुम खेलौ ।

बोलि लेहु सब सखा संग के, मेरौ कह्यौ कबहुँ जिनि पेलौ ॥

ब्रज-बनिता सब चोर कहति तोहिं, लाजनि सकचि जात मुख मेरौ ।

आजु मोहि बलराम कहत हे, झूठहिं नाम धरति हैं तेरौ ॥

जब मोहि रिस लागति तब त्रासति, बाँधति मारति जैसैं चेरौ ।

सूर हँसति ग्वालिनि दै तारी, चोर नाम कैसैहुँ सुत फेरौ ॥

भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं – (समझाते हुए) यशोदाजी कह रही हैं,’मेरे प्यारे कन्हाई ! तुम अपने ही आँगनमें खेलो । अपने साथके सब सखाओं को बुला लो, मेरा कहना कभी टाला मत करो । व्रजकी सब स्त्रियाँ तुम्हें चोर कहती हैं, इससे मेरा मुख लज्झासे संकुचित हो जाता है । परंतु आज मुझसे बलराम कहते थे कि वे सब तुम्हें झूठ-मूठ बदनाम करती हैं । जब मुझे क्रोध आता है, तब मैं तुम्हें दासके समान डाँटती हूँ, बाँधती हूँ और मार भी देती हूँ । गोपियाँ ताली बजाकर (चिढ़ाकर) हँसती हैं, अतः पुत्र ! यह चोर नाम तो किसी प्रकार बदल (ही) डालो ।’