राग नट
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मोहन ! हौं तुम ऊपर वारी ।
कंठ लगाइ लिये, मुख चूमति, सुंदर स्याम बिहारी ॥
काहे कौं ऊखल सौं बाँध्यौ, कैसी मैं महतारी ।
अतिहिं उतंग बयारि न लागत, क्यौं टूटे तरु भारी ॥
बारंबार बिचारति जसुमति , यह लीला अवतारी ।
सूरदास स्वामी की महिमा, कापै जाति बिचारी ॥
भावार्थ / अर्थ :– ‘मोहन ! मैं तुम्हारे ऊपर न्योछावर हूँ !’ (यह कहकर मैयाने) लीला-विहारी श्यामसुन्दरको गलेसे लगा लिया और उनका मुख चुम्बन करने लगीं । ~मैंने क्यों तुम्हें ऊखलमें बाँध दिया, मैं कैसी (निष्ठुर) माता हूँ । ये वृक्ष तो बड़े ऊँचे हैं,इन्हें हवा भी नहीं लगती (आँधीमें भी ये झुकते नहीं थे) ऐसे भारी वृक्ष कैसे टूट गये ?’ यशोदाजी यही बार-बार विचार कर रही है । सूरदासजी कहते हैं-मेरे स्वामीकी यह तो अवतार लीला है; उनकी महिमा भला, किससे सोची (समझी) जा सकती है ?