189. राग सोरठ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग सोरठ

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काहे कौं हरि इतनौ त्रास्यौ ।

सुनि री मैया, मेरैं भैया कितनौ गोरस नास्यौ ।|

जब रजु सौं कर गाढ़ैं बाँधे, छर-छर मारी साँटी ।

सूनैं घर बाबा नँद नाहीं, ऐसैं करि हरि डाँटी ॥

और नैकु छूवै देखै स्यामहि, ताकौ करौं निपात ।

तू जो करै बात सोइ साँची , कहा कहौं तोहि मात ॥

ठाढ़ बदत बात सब हलधर, माखन प्यारौ तोहि ।

ब्रज-प्यारी, जाखौ मोहि गारौ, छोरत काहे न ओहि ॥

काकौ ब्रज, माखन-दधि काकौ, बाँधे जकरि कन्हाई ।

सुनत सूर हलधर की बानी जननी सैन बताई ॥

भावार्थ / अर्थ :– (बलरानजी कहते हैं -)’ श्यामसुन्दरको तूने इतना त्रस्त क्यों कर दिया ? अरी मैया ! सुन, मेरे भाईने (अन्ततः) कितना गोरस नष्ट किया था जिसके कारण तूने रस्सीसे इसके हाथ कसकर बाँध दिये और सटासट छड़ी मार दी? सूने घरमें, जब नन्दबाबा नहीं थे, तभी तू इस प्रकार मोहनको डाँट सकी । कोई दूसरा श्यामको तनिक छूकर तो देखे, उसे मैं मारही डालूँ, पर तुझे क्या कहूँ । तू माता है इसलिये तू जो कुछ करे वही बात सच्ची (ठीक) है (तुझपर मेरा कोई वश नहीं )।’ खड़े-खड़े बलराम ये सब बातें कह रहे हैं -‘तुझे मक्खन प्यारा है । जो पूरे व्रजका प्यारा है, जिसपर मुझे भी गर्व है, उसे तू छोड़ती क्यों नहीं ? तूने कन्हाईको जकड़ कर बाँध रखा है, पर यह व्रज किसका है ? मक्खन और दही किसका है ? (श्यामका ही तो है ।) सूरदासजी कहते हैं कि बलरामजीकी बात सुनकर माताने उन्हें (अलग बात करनेका) संकेत किया ।