185. राग सारंग – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग सारंग [ 251]

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हलधर सौं कहि ग्वालि सुनायौ ।

प्रातहि तैं तुम्हरौ लघु भैया, जसुमति ऊखल बाँधि लगायौ ॥

काहू के लरिकहि हरि मार््यौ, भोरहि आनि तिनहिं गुहरायौ ।

तबही तैं बाँधे हरि बैठे, सो तुमकौं आनि जनायौ ॥

हम बरजी बरज्यौ नहिं मानति, सुनतहिं बल आतुर ह्वै धायौ ।

सूर स्याम बैठे ऊखल लगि, माता उर-तनु अतिहिं त्रसायौ ॥

भावार्थ / अर्थ :– (किसी) गोपीने श्रीबलराम से यह बात कह सुनायी है । श्यामने किसीके लड़केको मारा था, सबेरे ही आकर उसने पुकार की, तभीसे मोहन बँधे बैठे हैं – यह बात हमने आकर तुम्हें बता दी । हमने तो बहुत रोका, किंतु (व्रजरानी) हमारा रोकना मानती नहीं हैं ।’ यह सुनते ही बलरामजी आतुरतापूर्वक दौड़ पड़े । सूरदासजी कहते हैं (उन्होंने देखा) कि श्यामसुन्दर ऊखलसे सटे बैठे हैं, माताने उनके शरीरको अत्यन्त पीड़ित तथा हृदयको बहुत भयभीत कर दिया है ।

[252]

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यह सुनि कै हलधर तहँ धाए ।

देखि स्याम ऊखल सौं बाँधे, तबहीं दोउ लोचन भरि आए ॥

मैं बरज्यौ कै बार कन्हैया, भली करी दोउ हाथ बँधाए ।

अजहूँ छाँड़ौगे लँगराई, दोउ कर जोरि जननि पै आए ॥

स्यामहि छोरि मोहि बाँधै बरु, निकसत सगुन भले नहिं पाए ।

मेरे प्रान जिवन-धन कान्हा, तिनके भुज मोहि बँधे दिखाए ॥

माता सौं कहा करौं ढिठाई, सो सरूप कहि नाम सुनाए ।

सूरदास तब कहति जसोदा, दोउ भैया तुम इक-मत पाए ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपीकी) यह बात सुनते ही बलराम वहाँ दौड़े आये । ज्यों ही उन्होंने श्यामको ऊखलसे बँधा देखा, त्यों ही उनके दोनों नेत्र भर आये । (वे बोले-)’ कन्हाई मैंने तुम्हें कितनी बार ( ऊधम करने से ) रोका था; अच्छा किया दोनों हाथ बँधवा लिये (मैयाने तुम्हारे हाथ बाँधकर ठीक ही किया) । अब भी ऊधम करना छोड़ोगे ?’ (यह कहकर) दोनों हाथ जोड़े हुए माताके पास आये (और बोले-) ‘मैया ! श्यामसुन्दरको छोड़ दे, बल्कि (उसके बदले) मुझे बाँध दे ; (घरसे) निकलते ही मुझे अच्छे शकुन नहीं हुए थे । (इसका फल प्रत्यक्ष हुआ।) कन्हाई मेरा प्राण है, जीवन-धन है । उसीके हाथ बँधे हुए मुझे दीखे ( देखने पड़े) मातासे मैं क्या धृष्टता करूँ।’यह कहकर (श्रीकृष्णचन्द्रका) वह (परमब्रह्म) स्वरूप तथा नाम बताया । सूरदासजी कहते हैं कि तब यशोदाजी कहने लगीं – ~तुम दोनों भाइयोंको मैंने एक ही मतका (एक समान ऊधमी) पाया है ।’

[253]

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एतौ कियौ कहा री मैया ?

कौन काज धन दूध दही यह, छोभ करायौ कन्हैया ॥

आईं सिखवन भवन पराऐं स्यानि ग्वालि बौरैया ।

दिन-दिन देन उरहनों आवतीं ढुकि-ढुकि करतिं लरैया ॥

सूधी प्रीति न जसुदा जानै, स्याम सनेही ग्वैयाँ ।

सूर स्यामसुंदरहिं लगानी, वह जानै बल-भैया ॥

भावार्थ / अर्थ :– (श्रीबलरामजी कहते हैं) ‘मैया ! कन्हाईने ऐसा क्या (भारी अपराध। किया था ? यह दूध-दहीकी सम्पत्ति किस काम आयेगी, जिसके लिये तुमने श्यामको दुखी किया ? (यशोदाजी बोलीं-)’ये पागल हुई गोपियाँ बड़ी समझदार बनकर दूसरेके घर आज शिक्षा देने आयी थीं, किंतु प्रतिदिन ये ही उलाहना देने आती हैं और जमकर लड़ाई करती हैं ।’ सूरदासजी कहते हैं कि यशोदाजी तो सीधी हैं, वे (गोपियोंके) प्रेम-भावको समझती नहीं, किंतु श्यामसुन्दर तो प्रेम करनेवालेके साथी हैं और इन गोपियोंकी प्रीति भी श्यामसे लगी है, यह बात बलरामजीके भाई श्रीकृष्णही जानते हैं ।