183. राग रामकली – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग रामकली

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जसुदा! यह न बूझि कौ काम ।

कमल-नैन की भुजा देखि धौं, तैं बाँधे हैं दाम ॥

पुत्रहु तैं प्यारी कोउ है री, कुल-दीपक मनिधाम ।

हरि पर बारि डार सब तन, मन, धन, गोरस अरु ग्राम ॥

देखियत कमल-बदन कुमिलानौ, तू निरमोही बाम ।

बैठी है मंदिर सुख छहियाँ, सुत दुख पावत घाम ॥

येई हैं सब ब्रजके जीवन सुख प्रात लिएँ नाम ।

सूरदास-प्रभु भक्तनि कैं बस यह ठानी घनस्याम ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपी कहती है-) ‘यशोदाजी यह समझदारीका काम नहीं है । देखो तो तुमने रस्सीसे कमललोचन श्यामके हाथ बाँध दिये हैं । अरी ! कुलके दीपक (कुलको नित्य उज्ज्वल करनेवाले) तथा घरको मणिकी भाँति प्रकाशित करनेवाले पुत्रसे भी बढ़कर कोई प्यारा है? श्यामसुन्दरपर तन, ,मन, धन, गोरस और गाँव-सब कुछ न्योछावर कर दे । मोहनका कमल-मुख मलिन हुआ दिखायी पड़ता है, किंतु तू बड़ी निर्मम स्त्री है जो स्वयं तो भवनकी छायामें सुखपूर्वक बैठी है और पुत्र धूपमें दुःख पा रहा है, सूरदासजी कहते हैं कि ये ही समस्त व्रजके जीवन हैं, प्रातःकाल ही इनका नाम लेनेसे आनन्द होता है । मेरे स्वामी घनश्यामने भक्तोंके वशीभूत होकर यह लीला की है ।