181. राग धनाश्री – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग धनाश्री

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तब तैं बाँदे ऊखल आनि ।

बालमुकुंददहि कत तरसावति, अति कोमल अँग जानि ॥

प्रातकाल तैं बाँधे मोहन, तरनि चढ़यौ मधि आनि ।

कुम्हिलानौ मुख-चंद दिखावति, देखौं धौं नँदरानि ॥

तेरे त्रास तैं कोउ न छोरत, अब छोरौं तुम आनि ।

कमल-नैन बाँधेही छाँड़े, तू बैठी मनमानि ॥

जसुमति के मन के सुख कारन आपु बँधावत पानि ।

जमलार्जुन कौं मुक्त करन हित, सूर स्याम जिय ठानि ॥

भावार्थ / अर्थ :– ‘तभीसे लाकर तुमने कन्हैयाको ऊखलमें बाँध दिया है । यह जानकर (भी) कि बाल-मुकुन्दका शरीर अत्यन्त कोमल है इन्हें क्यों तरसाती (पीड़ा देती) हो? मोहन को तुमने सबेरेसे ही बाँध रखा है और अब तो सूर्य मध्य आकाशमें आ चढ़ा (दोपहर हो गया) है ।’ (इस प्रकार गोपी) मलिन हुए चन्द्रमुखको दिखलाती हुई कहती है कि–‘तनिक देखो तो नन्दरानी ! तुम्हारे भयसे कोई इन्हें खोलता नहीं, अब तुम्हीं आकर खोल दो । कमल लोचनको बँधा ही छोड़कर तुम मनमाने ढ़ंगसे बैठी हौ ।’ सूरदासजी कहते हैं,श्यामसुन्दर ने यमलार्जुनको मुक्त करनेका मनमें निश्चय करके यशोदाजीके चित्तको सुख देनेके लिये स्वयं (अपने) हाथ बँधवा लिये हैं ।’ (नहीं तो इन्हें कोई कैसे बाँध सकता है ।)