165. राग आसावरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग आसावरी

[227]

……………

जाहु चली अपनैं-अपनैं घर ।

तुमहिं सबनि मिलि ढीठ करायौ, अब आईं छोरन बर ॥

मोहिं अपने बाबाकी सौहैं, कान्हि अब न पत्याउँ ।

भवन जाहु अपनैं-अपनैं सब, लागति हौं मैं पाउँ ॥

मोकौं जनि बरजौ जुवती कोउ, देखौ हरि के ख्याल ।

सूर स्याम सौं कहति जसोदा, बड़े नंद के लाल ॥

(श्रीव्रजरानी कहती हैं -) ‘सब अपने-अपने घर चली जाओ ! तुम्हीं सबने मिलकर तो इसे ठीढ़ बना दिया है और अब भली बनकर छोड़ने आयी हो । मुझे अपने पिताकी शपथ, अब मैं कन्हाईका विश्वास नहीं करूँगी ।मैं तुम सबके पैरों पड़ती हूँ, अब अपने-अपने घर चली जाओ ! कोई युवती मुझे मना मत करो, सब कोई श्यामकी चपलता देखो।’ सूरदासजी कहते हैंकि (व्यंग से) यशोदाजी श्यामसुन्दर से कह रही हैं – ‘तुम सम्मानित व्रजराजके दुलारे हो न?” (तात्पर्य यह कि पिताके बलपर ऊधम करते थे, अब देखती हुँ कि पिता तुम्हें कैसे छुड़ाते हैं ।)