160. राग नट – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग नट

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नंद-घरनि ! सुत भलौ पढ़ायौ ।

ब्रज-बीथिनि, पुर-गलिनि, घरै-घर, घाट-बाट सब सोर मचायौ ॥ ल

रिकनि मारि भजत काहू के, काहू कौ दधि-दूध लुटायौ ।

काहू कैं घर करत भँड़ाई, मैं ज्यौं-ज्यौं करि पकरन पायौ ॥

अब तौ इन्है जकरि धरि बाँधौं, इहिं सब तुम्हरौ गाउँ भजायौ ।

सूर स्याम-भुज गहि नँदरानी, बहुरि कान्ह अपनैं ढँग लायौ ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपी कहती है-) ‘नन्दरानी ! तुमने पुत्रको अच्छी शिक्षा दी है व्रजकी गलियोंमें, नगरके मार्गोमें, घर-घरमें, घाटोंपर, कच्चे रास्तोंमें-सब कहीं उसने हल्ला (ऊधम) मचा रखा है । किसीके लड़कोंको मारकर भाग जाता है, किसीका दूध-दही लुटा देता है, किसीके घरमें घुसकर ढूँढ़-ढ़ाँढ़ करता है, जैसे-तैसे करके मैं इसे पकड़ सकी हूँ । अब तो इसे जकड़कर बाँध रखो, इसने तुम्हारे सारे गाँवको भगा दिया (इसके ऊधमसे तंग होकर सब लोग गाँव छोड़कर जाने लगे)।’ सूरदासजी कहते हैं कि श्रीनन्दरानीने श्यामसुन्दरका हाथ पकड़ लिया; किंतु कन्हाई तो फिर अपने ही ढंगमें लग गये (पूर्ववत् ऊधम करते रहे) ।