146. राग बिलावल – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग बिलावल

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(कान्ह कौं) ग्वालिनि! दोष लगावति जोर ।

इतनक दधि-माखन कैं कारन कबहिं गयौ तेरी ओर ॥

तू तौ धन-जोबन की माती, नित उठि आवति भोर ।

लाल कुँअर मेरौ कछू न जानै, तू है तरुनि किसोर ॥

कापर नैंन चढ़ाए डोलति, ब्रज मैं तिनुका तोर ।

सूरदास जसुदा अनखानी, यह जीवन-धन मोर ॥

भावार्थ / अर्थ :– (माताने कहा-) ‘गोपी! तू क्यों (कन्हैयाको) हठपूर्वक दोष लगा रही है ? इतने थोड़े-से मक्खन और दहीके लिये वह कब तेरी ओर गया? तू तो अपनी सम्पत्ति और युवावस्थाके कारण मतवाली हो रही है, प्रतिदिन सबेरे ही उठकर चली आती है । मेरा लाल तो बालक है, वह कुछ जानता ही नहीं; इधर तू नवयुवती है ( तुझे ही यह सब धूर्तता आती है) तू तिनका तोड़कर (निर्लज्ज होकर) व्रज में किसपर आँखें चढ़ाये घूमती है ?’ सूरदासजी कहते हैं कि मैया यशोदा रुष्ट होकर बोलीं -‘यह तो मेरा जीवन धन है (समझी)? अब चुपचाप चली जा)।’