राग गौरी
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कत हो कान्ह काहु कैं जात ।
वे सब ढीठ गरब गोरस कैं, मुख सँभारि बोलति नहिं बात ॥
जोइ-जोइ रुचै सोइ तुम मोपै माँगे लेहु किन तात ।
ज्यौं-ज्यौं बचन सुनौ मुख अमृत, त्यौ-त्यौं सुख पावत सब गात ॥
केशी टेव परी इन गोपिन, उरहन कैं मिस आवति प्रात ।
सूर सू कत हठि दोष लगावति, घरही कौ माखन नहिं खात ॥
भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं – (माता कह रही है-) श्याम ! तुम क्यों किसीके यहाँ जाते हो ? ये सब (गोपियाँ) तो गोरस (अपने दुध-दही) के गर्वमें ढीठ (मतवाली) हो रही है, मुख सँभालकर बात नहीं कहतीं । मेरे लाल! तुम्हें जो-जो अच्छा लगे, वही-वही तुम मुझसे क्यों नहीं माँग लेते ? मैं तो जैसे-जैसे तुम्हारे मुखकी अमृतमयी वाणी सुनती हूँ, वैसे-वैसे मेरे सारे अंग आनन्दित हो उठते हैं (तुम्हारे बार-बार माँगनेसे मैं खीझ नहीं सकती) ।इन सब गोपियों को कैसी टेव (आदत) पड़ गयी है कि सबेरे-सबेरे उलाहना देने के बहाने आ जाती हैं । ये क्यों मेरे लालको हठ करके दोष लगाती हैं यह तो घरका ही मक्खन नही खाता ।
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घर गौरस जनि जाहु पराए ।
दूध भात भोजन घृत अमृत, अरु आछौ करि दह्यौ जमाए ॥
नव लख धेनु खरिक घर तेरैं, तू कत माखन खात पराए ।
निलज ग्वालिनी देति उरहनौ, वै झूठें करि बचन बनाए ॥
लघु-दीरघता कछु न जानैं, कहूँ बछरा कहुँ धेनु चराए ।
सूरदास प्रभु मोहन नागर, हँसि-हँसि जननी कंठ लगाए ॥
(माताने कहा) ‘लाल! (तुम्हारे) घरमें ही (पर्याप्त) गोरस हैं, दूसरेके घर मत जाया करो । दूध भात और घीका अमृततुल्य भोजन है तथा प्रकार (दूध गाढ़ा करके ) दही जमाया है । तुम्हारे ही घरके गोष्ठमें नौ लाख गायें हैं, (फिर) तुम दूसरेके घर जाकर मक्खन क्यों खाते हो ?’ (श्याम बोले-)’ये निर्लज्ज गोपियाँ गढ़ी हुई बातें कहकर झूठ-मूठ उलाहना देती रहती हैं ये बड़े-छोटेका भाव कुछ जानती नहीं, कहीं बछड़े और कहीं गायें चराती घूमती हैं ।’ सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी मोहन तो (परम) चतुर हैं, (उनकी बातें सुनकर) माताने बार-बार हँसते हुए उन्हें गले लगा लिया ।