राग बिलावल
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भ्रज घर-घर प्रगटी यह बात ।
दधि-माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल -सखा सँग खात ॥
ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारैं आवैं ।
माखन खात अचानक पावैं, भुज हरि उरहिं छुवावैं ॥
मन-हीं-मन अभिलाष करति सब हृदय धरति यह ध्यान ।
सूरदास प्रभु कौं घर तैं लैं दैहौं माखन खान ॥
भावार्थ / अर्थ :– (शीघ्र ही) व्रजके प्रत्येक घरमें यह बात प्रकट हो गयी कि श्याम दही और मक्खन चोरी करके ले लेते हैं और गोप-सखाओं के साथ खाते हैं । व्रजकी गोपियाँ यह सुनकर हर्षित हो रही हैं । (वे सोचती हैं) – ‘मोहन हमारे घर भी आयें , उन्हें मक्खन खाते मैं अचानक पा जाऊँ और दोनों भुजाओंका हृदयसे स्पर्श करा लूँ ।’ सब मन-ही-मन यही अभि लाषा करती हैं, हृदयमें उन्हींका ध्यान करती हैं । सूरदासजी कहते हैं -(मेरे स्वामी के विषयमें वे सोचती हैं कि) ‘घरसे लेकर हम मोहनको खानेके लिये मक्खन देंगी ।’