आजकल मैं कोई नई रचना नहीं कर रहा हूं। नीचे मेरी कुछ पुरानी रचनाएं दी गईं हैं।
छप्पर का छेद
छप्पर के एक छेद से
आती अस्ताचल सूरज की
गोल मटोल सी एक किरण
एक प्रकाश का ठप्पा
सारी दुनिया जैसे उसमें समायी है
देखो वो बादल जा रहे हैं
पीछे चिडिया जा रही हैं
आंख मिचौनी का खेल चल रहा है
अभी बादल था अभी गायब हो गया
कुछ देर के लिए
सुन-सान, विरान हो गई दुनिया
फिर कुछ पंछी आए, पीछे बादल आए
दोनो साथ मिलकर खेले
और दुनिया फिर से रंग-बिरंगी
ठप्पा वह उपर उठ रहा
शायद दुनिया भी साथ है
खेल वह अब भी चल रहा
बादल पंछी अब भी छुआ-छुई का आनंद ले रहे
बेखबर अपनी दुनिया के उपर उठने से
देखते देखते ओझल हो गया वह ठप्पा
वह दुनिया न रही, न वह बादल, न पंछी
बैठा इंतजार कर रहा एक
शायद कल भी वो दुनिया
इसी जगह फिर से आए
४ जनवरी, २०००
मत करो मजबूर
कल तो जाना ही है
फिर क्यूं भागूं
दुनिया के पीछे-आगे
बस बैठे रहो
चाहिए क्या
वही तीन वस्तु ना?
तीन क्यों, बस एक ही
दो तो तुमने ख़ुद बना डाला
मूर्खतावश
कहो तुम सभ्यता उसे
ओ दुनियावालो, मूर्खों
रहने दो मुझे असभ्य
मत करो मुझे मजबूर
कबाड़ों के ढ़ेर जुटाने पर
मैं राजा बनना चाहता हूं
दास नहीं, तुम्हारी तरह
मुझे चाहिए शांति
क्या मिलेगी?
तुम्हारी इस समाज व्यवस्था में
क्यूं पढ़ूं मैं तुम्हारी
ज्ञान की वह पोथी
सिखाते हो जिसमें गुर तुम
कबाड़ जुटाने का
मत करो मजबूर, मत करो मजबूर
मुझे तुम
कबाड़ जुटाने पर, जीवन को ढोने पर
मत करो मजबूर।
१६ जून, २०००
दुनिया का आकार
जीवन के अंतिम पड़ाव पर हूं मैं
सुना था, दुनिया के आकार के बारे में
सुना था, दुनिया छोटी होती जा रही है
सत्य था वो।
एक गांव, एक क्षेत्र, एक देश एक दुनिया
वही लोग, वही जीव, वही पौधे
एक घर है मेरा
आंखे खुली तो छ्प्पर का एक छेद मैने देखा था
आज जब बंद होने को है
वही मेरी आंखों के सामने है
आंख के खुलने और बंद होने के बीच
घूमती है मेरी दुनिया।
जुलाई, २०००
चीज क्या है?
कुछ कुलबुला रहा था
बुरी तरह
खोज की
इधर उधर
हर तरफ से
छान कर
खींछ कर
लाया उसे
सामने अपने किया
फिर उठाकर हाथ में
देखने उसको लगा।
चीज क्या है?
देख तो
कहीं मैं यही तो नहीं।
जुलाई, २०००
मानव
जब जन्मा था तब मैं एक था।
बड़े होने के साथ मेरे टुकड़े होते गए
या शायद मैने खुद को टुकड़े-टुकड़े कर डाला।
हरेक दुनिया अपने मे एक था।
आश्चर्य ! फिर भी सब एक साथ जुड़े थे।
जहां भी जाता था सब साथ चलते थे।
सभी की अपनी आकांक्षाएं थीं।
सभी मुझसे और ज्यादा मांग रहे थे।
इतना ही नहीं,
इन सबों के बीच लड़ाई भी होती थी
और इन सबों की लड़ाई में मैं मारा गया।
आज भी मैं उन सबों को लड़ते हुए चुपचाप देखता रहा हूं
वह आत्मा, वह शरीर, वे ज्ञानेन्द्रियां, वे कर्मेंन्द्रियां
काश! सब एक हो मुझे पुनरूज्जिवित करतीं।
अगस्त, २०००
चार शेर सपनों के
सुनता रहूं मैं बात दिल की भी, न सिर्फ मेरे दिमाग रहें।
मैं तुम्हें समझूं, तुम मुझे समझो, अकेले न हम ग़मसाज़ रहें।
न मैं मैं रहूं, न तुम तुम रहो, सिर्फ अब हम हम रहें।
मिलकर चलें अब हम सभी, बाकी न कोई ग़म रहें।
लुत्फ लें हम उन सभी, ग़म का जो आए सामने।
जिंदगी के सारे ग़म का, करके सर कलम रहें।
हम भी बेटे तुम भी बेटे एक ही आदम के हैं।
बेहतर हो के अब हम सभी, अपने घर में साथ रहे।
१३ अगस्त, २०००
वह हंसता है
तुम रोते हो? वह हंसता है।
तुम्हें गुस्सा है? वह हंसता है।
तुम खुश हो? वह हंसता है।
तुम्हें ग़म है? वह हंसता है।
तुम अमीर हो? वह हंसता है।
तुम ग़रीब हो? वह हंसता है।
तुम विद्वान हो? वह हंसता है।
तुम मूर्ख हो? वह हंसता है।
तुम चालाक हो? वह हंसता है।
तुम कौन हो? वह हंसता है।
तुम जो भी हो। वह हंसता है।
तुम हंसते हो? देखो वह पागल है।
हां-हां पागल है। वह तो पागल है।
वह तो पागल है।
वह तो पागल है।
है?
२५ नवंबर, २०००
kavita gaud roop dekhne ko mila