98. राग रामकली – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग रामकली

[140]

……………

खेलन चलौ बाल गोबिन्द !

सखा प्रिय द्वारैं बुलावत, घोष-बालक-बूंद ॥

तृषित हैं सब दरस कारन, चतुर चातक दास ।

बरषि छबि नव बारिधर तन, हरहु लोचन-प्यास ॥

बिनय-बचननि सुनि कृपानिधि, चले मनहर चाल ।

ललित लघु-लघु चरन-कर, उर-बाहु-नैन बिसाल ॥

अजिर पद-प्रतिबिंब राजत, चलत, उपमा-पुंज ।

प्रति चरन मनु हेम बसुधा, देति आसन कंज ॥

सूर-प्रभु की निरखि सोभा रहे सुर अवलोकि ।

सरद-चंद चकोर मानौ, रहे थकित बिलोकि ॥

भावार्थ / अर्थ :– बालकों का समुदाय द्वारपर आ गया, वे सब प्रिय सखा बुलाने लगे–बालगोविन्द खेलने चलो । हे चतुरशिरोमणि ! हम सब तुम्हारे सेवक, तुम्हारे दर्शनके लिये चातकोंके समान प्यासे हैं, अपने नवजलधर-शरीरकी शोभाकी वर्षा करके (वह शोभा दिखलाकर) हमारे नेत्रोंकी प्यास हर लो’ कृपानिधान श्याम यह विनीत वाणी सुनकर मनोहर चालसे चल पड़े । उनके छोटे-छोटे चरण एवं हाथ बड़े सुन्दर हैं, वक्षःस्थल, भुजाएँ तथा नेत्र बड़े बड़े हैं । चलते समय उनके चरणोंका प्रतिबिंब आँगनमें इस प्रकार शोभा देता है कि उपामाओंका समुदाय ही जान पड़ता है । ऐसा लगता है मानो (आँगनकी) यह स्वर्णमयी भूमि प्रत्येक चरणपर (चरणोंके लिये) कमलका आसन दे रही है । सूरदास के स्वामी की शोभा देखकर देवता देखते ही रह गये, मानो शरद्-पूर्णिमा के चन्द्रमा को देखते हुए चकोर थकित हो रहे हों ।