88. राग रामकली – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग रामकली

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प्रात समय उठि, सोवत सुत कौ बदन उघार््यौ नंद ।

रहि न सके अतिसय अकुलाने, बिरह निसा कैं द्वंद ॥

स्वच्छ सेज मैं तैं मुख निकसत, गयौ तिमिर मिटि मंद ।

मनु पय-निधि सुर मथत फेन फटि, दयौ दिखाई चंद ॥

धाए चतुर चकोर सूर सुनि, सब सखि -सखा सुछंद ।

रही न सुधि सरीर अरु मन की, पीवत किरनि अमंद ॥

भावार्थ / अर्थ :– व्रजराज श्रीनन्दजी नेसबेरे उठकर अपने सोते हुए पुत्रका मुख (उत्तरीय हटाकर) खोला, क्योंकि वे अपनेको रोक न सके; रात्रिमें हो वियोग हुआ था, उसके दुःखसे वे अत्यन्त छटपटा रहे थे । स्वच्छ शय्यामेंसे मोहनका मुख खुलते ही (प्रातः कालीन) मन्द अन्धकार भी दूर हो गया । ऐसा लगा मानो देवताओं द्वारा क्षीरसमुद्रका मन्थन करते समय फेन फट जानेसे चन्द्रमा दिखलायी पड़ गया । सूरदासजी कहते हैं कि (मोहन उठ गये, यह) सुनकर चतुर चकोरोंके समान सब गोपियाँ और ग्वालबाल शीघ्रता से दौड़े, उस मुखचन्द्रकी उज्ज्वल किरणोंका पान करते हुए उन्हें अपने तन-मनकी भी सुधि नहीं रही ।