87. राग बिलावल – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग बिलावल

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जागिए, व्रजराज-कुँवर, कमल-कुसुम फूले ।

कुमुद-बृँद सकुचित भए, भृंग लता भूले ॥

तमचुर खग रोर सुनहु, बोलत बनराई ।

राँभति गो खरिकनि मैं, बछरा हित धाई ॥

बिधु मलीन रबि-प्रकास गावत नर-नारी ।

सूर स्याम प्रात उठौ, अंबुज-कर-धारी ॥

भावार्थ / अर्थ :– व्रजराजकुमार, जागो! देखो, कमलपुष्प विकसित हो गये, कुमुदिनियों का समूह संकुचित हो गया, भौंरे लताओंको भूल गये (उन्हें छोड़कर कमलों पर मँडराने लगे) मुर्गे और दूसरे पक्षियोंका शब्द सुनो, जो वनराजिमें बोल रहे हैं, गोष्ठोंमें गोएँ रँभाने लगी हैं और बछड़ोंके लिये दौड़ रही हैं । चन्द्रमा मलिन हो गया, सूर्यका प्रकाश फैल गया, स्त्री-पुरुष (प्रातःकालीन स्तुति) गान कर रहे हैं । सूरदासजी कहते हैं कि कमल-समान हाथोंवाले श्यामसुन्दर! प्रातःकाल हो गया, अब उठो ।