राग धनाश्री
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आजु नंद के द्वारैं भीर ।
इक आवत, इक जात विदा ह्वै , इक ठाढ़े मंदिर कैं तीर ॥
कोउकेसरि कौ तिलक बनावति, कोउ पहिरति कंचुकी सरीर ।
एकनि कौं गौ-दान समर्पत, एकनि कौं पहिरावत चीर ॥
एकनि कौं भूषन पाटंबर, एकनि कौं जु देत नग हीर ।
एकनि कौं पुहुपनि की माला, एकनि कौं चंदन घसि नीर ॥
एकनि माथैं दूब-रोचना, एकनि कौं बोधति दै धीर ।
सूरदास धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य-सरीर ॥
भावार्थ / अर्थ :– आज नन्दजी के द्वारपर भीड़ हो रही है । कोई आ रहा है, कोई बिदा होकर
जा रहा है और कोई भवन के समीप खड़ा है । कोई गोपिका केसरका तिलक लगा रही है, कोई
शरीरमें कंचुकी पहिन रही है । (श्रीनन्दजी) किसी को गोदान दे रहे हैं, किसी को
वस्त्र पहिना रहे हैं, किसी को आभूषण और पीताम्बर देते हैं, किसी को मणियाँ और हीरे
देते हैं, किसीको पुष्पोंकी माला पहिनाते हैं, किसीको (स्वयं) जलमें घिसकर चन्दन
लगाते हैं, किसी के मस्तक पर दूर्वा और गोरोचन डालते हैं और किसी को धैर्य दिलाकर
(स्थिर होकर कार्य करने के लिये)समझाते हैं । सूरदासजी कहते हैं कि ये श्यामसुन्दर
के प्रेमी (गोप-गोपी) धन्य हैं और पवित्र देहधारिणी माता यशोदा धन्य हैं ।