77. राग आसावरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग आसावरी

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जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन, रोइ गए हरि लोटत री ।

तेल उबटनौं लै आगैं धरि, लालहिं चोटत-पोटत री ॥

मैं बलि जाउँ न्हाउ जनि मोहन, कत रोवत बिनु काजैं री ।

पाछैं धरि राख्यौ छपाइ कै उबटन-तेल-समाजैं री ॥

महरि बहुत बिनती करि राखति, मानत नहीं कन्हैया री ।

सूर स्याम अतिहीं बिरुझाने, सुर-मुनि अंत न पैया री ॥

भावार्थ :-– श्री यशोदाजी जब स्नान करानेको कहा तो श्यामसुन्दर रोने लगे और पृथ्वीपर लोटने लगे । (माताने) तेल और उबटन लेकर आगे रख लिया और अपने लालको पुचकारने-दुलारने लगीं । (वे बोलीं) ‘मोहन! मैं तुमपर बलि जाऊँ, तुम स्नान मत करो, किंतु बिना काम (व्यर्थ) रो क्यों रहे हो ?’ (माताने) उबटन, तेल आदि सामग्री अपने पीछे छिपाकर रख ली । श्री व्रजरानी अनेक प्राकर से कहकर समझाती हैं, किंतु कन्हाई मानते ही नहीं । सूरदासजी कहते हैं कि जिनका पार देवता और मुनिगण भी नहीं पाते, वे ही श्यामसुन्दर बहुत मचल पड़े हैं ।