70. राग बिलावल – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग बिलावल

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नैकु रहौ, माखन द्यौं तुम कौं ।

ठाढ़ी मथति जननि आतुर, लौनी नंद-सुवन कौं ॥

मैं बलि जाउँ स्याम-घन-सुंदर, भूख लगी तुम्हैं भारी ।

बात कहूँ की बूझति स्यामहि, फेर करत महतारी ॥

कहत बात हरि कछू न समुझत, झूठहिं भरत हुँकारी ।

सूरदास प्रभुके गुन तुरतहिं, बिसरि गई नँद-नारी ॥

श्रीनन्दनन्दनको मक्खन देनेके लिये माता खड़ी होकर बड़ी शीघ्रतासे दही मथ रही हैं ।(वे कहती हैं-) ‘लाल! तनिक रुको । मैं तुम्हें अभी मक्खन देती हूँ । नवजलधर -सुन्दर श्याम ! मैं तुमपर बलिहारी जाऊँ, तुम्हें बहुत अधिक भूख लगी है?’ इस प्रकार इधर-उधरकी बात श्यामसुन्दरसे पूछ-पूछकर माता उन्हें बहला रही हैं । माता क्या बात कहती है, यह तो मोहन कुछ समझते नहीं, झूठ-मुठ ‘हाँ-हाँ’ करते जा रहे हैं। (उनकी इस लीलासे) श्रीनन्दरानी सूरदासके स्वामीके गुण (उनकी अपार महिमा) तत्काल भूल गयीं (और वात्सल्य-स्नेहमें मग्न हो गयीं) ।

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बातनिहीं सुत लाइ लियौ ।

तब लौं मधि दधि जननि जसोदा, माखन करि हरि हाथ दियौ ॥

लै-लै अधर परस करि जेंवत, देखत फूल्यौ मात-हियौ ।

आपुहिं खात प्रसंसत आपुहिं, माखन-रोटी बहुत प्रियौ ॥

जो प्रभु सिव-सनकादिक दुर्लभ, सुत हित जसुमति-नंद कियौ ।

यह सुख निरखत सूरज प्रभु कौ, धन्य-धन्य पल सुफल जियौ ॥

भावार्थ / अर्थ :– यशोदाने अपने पुत्रको बातेंमें लगा लिया और तबतक दही मथकर मक्खन श्यामके हाथपर रख दिया । मोहन (थोड़ा-थोड़ा माखन) ले-लेकर होठसे छुलाकर खा रहे हैं, यह देखकर माताका हृदय प्रफुल्लित हो गया है, स्वयं ही खाते हैं और स्वयं ही प्रशंसा करते हैं, मक्खन-रोटी इन्हें बहुत प्रिय है । जो प्रभु शिव और सनकादि ऋषियोंको भी दुर्लभ हैं, उन्हें पुत्र बनाकर यशोदाजी और नन्दबाबा उनसे (वात्सल्य) प्रेम कर रहे हैं । अपने स्वामीका यह आनन्द देखकर सूरदास इस क्षण को परम धन्य मानता है, जीवनका यही सुफल है (कि श्यामकी बाल-लीलाके दर्शन हों)।