राग बिलावल
[93]
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पलना झूलौ मेरे लाल पियारे ।
सुसकनि की वारी हौं बलि-बलि, हठ न करहु तुम नंद-दुलारे ॥
काजर हाथ भरौ जनि मोहन ह्वै हैं नैना रतनारे ।
सिर कुलही, पग पहिरि पैजनी, तहाँ जाहु नंद बबा रे ॥
देखत यह बिनोद धरनीधर, मात पिता बलभद्र ददा रे ।
सुर-नर-मुनि कौतूहल भूले, देखत सूर सबै जु कहा रे ॥
भावार्थ / अर्थ :– (माता कहती हैं-) ‘मेरे प्यारे लाल ! पालनेमें झूलो । तुम्हारे इस (सिसकने रोने ) पर मैं बलिहारी जाती हूँ । बार-बार मैं तुम्हारी बलैयाँ लूँ, नन्द नन्दन ! तुम हठ मत करो । मोहन ! (नेत्रोंको मलकर) हाथोंको काजलसे मत भरो । (मलनेसे) नेत्र अत्यन्त लाल हो जायँगे । मस्तकपर टोपी और चरणों में नूपुर पहिनकर वहाँ जाओ, जहाँ नन्दबाबा बैठे हैं ।’ सूरदासजी कहते हैं कि जगत के धारणकर्ता प्रभु का यह विनोद माता यशोदा, बाबा नन्द और बड़े भाई बलरामजी देख रहे हैं । देवता, गन्धर्व तथा मुनिगण इस विनोद को देखकर भ्रमित हो गये । सभी देखते हैं कि प्रभु यह क्या लीला कर रहे हैं ।
[94]
क्रीड़त प्रात समय दोउ बीर ।
माखन माँगत, बात न मानत, झँखत जसोदा-जननी तीर ॥
जननी मधि, सनमुख संकर्षन कैंचत कान्ह खस्यो सिर-चीर ।
मनहुँ सरस्वति संग उभय दुज, कल मराल अरु नील कँठीर ॥
सुंदर स्याम गही कबरी कर, मुक्त-माल गही बलबीर ।
सूरज भष लैबे अप-अपनौ, मानहुँ लेत निबेरे सीर ॥
भावार्थ / अर्थ :– सबेरेके समय दोनों भाई खेल रहे हैं ! वे माखन माँग रहे हैं और मैया यशोदासे झगड़ रहे हैं, उसकी कोई दूसरी बात मान नहीं रहे हैं ! मैया बीचमें है, बलराम उसके आगे हैं और पीछेसे कन्हाईके खींचनेसे माताके मस्तकका वस्त्र खिसक गया है । ऐसा लगता है मानो सरस्वतीके संग बाल-हंस और मयूर-शिशु ये दोनों पक्षी क्रीड़ा करते हों । श्यामसुन्दरने माताकी चोटी हाथों में पकड़ रखी है और बलरामजी मोतीकी माला पकड़कर खींच रहे हैं । सूरदासजी कहते हैं कि मानो अपना-अपना आहार (सर्प और मोती) लेनेके लिये दोनों पक्षी (मयूर और हंस) अपने हिस्सेका बँटवारा किये लेते हों ।
[95]
कनक-कटोरा प्रातहीं, दधि घृत सु मिठाई ।
खेलत खात गिरावहीं, झगरत दोउ भाई ॥
अरस-परस चुटिया गहैं, बरजति है माई ।
महा ढीठ मानैं नहीं, कछु लहुर-बड़ाई ॥
हँसि कै बोली रोहिनी, जसुमति मुसुकाई ।
जगन्नाथ धरनीधरहिं, सूरज बलि जाई ॥
भावार्थ / अर्थ :– सबेरे ही सोनेके कटोरेमें दही, मक्खन और उत्तम मिठाइयाँ लिये भाई (श्याम-बलराम) खेल रहे हैं, खाते जाते हैं, कुछ गिराते जाते हैं और परस्पर झगड़ते भी हैं । झपटकर एक-दूसरेकी चोटी पकड़ लेते हैं, मैया उन्हें मना करती है । माता रोहिणीने हँसकर कहा -‘दोनों अत्यन्त ढीठ हैं, कुछ भी छोटे बड़ेका सम्बन्ध नहीं मानते’ मैया यशोदा (यह सुनकर) मुसकरा रही हैं । सूरदासतो इन जगन्नाथ श्यामसुन्दर और धरणीधर बलरामजीपर बलिहारी जाता है ।
[96]
गोपालराइ दधि माँगत अरु रोटी ।
माखन सहित देहि मेरी मैया, सुपक सुकोमल रोटी ॥
कत हौ आरि करत मेरे मोहन, तुम आँगन मैं लोटी?।
जो चाहौ सो लेहु तुरतहीं, छाँड़ौ यह मति खोटी ॥
करि मनुहारि कलेऊ दीन्हौ, मुख चुपर््यौ अरु चोटी ।
सूरदास कौ ठाकुर ठाढ़ौ, हाथ लकुटिया छोटी ॥
गोपालराय दही और रोटी माँग रहे हैं । (वे कहते हैं-) ‘मैया। अच्छी पकी हुई और खूब कोमल रोटी मुझे मक्खनके साथ दे ।’ (माता कहती हैं -) ‘मेरे मोहन ! तुम आँगन में लोटकर मचलते क्यों हो, यह बुरा स्वभाव छोड़ दो । जो इच्छा हो वह तुरंत लो।’ निहोरा करके (माताने) कलेऊ दिया और फिर मुख तथा अलकोंमें तेल लगाया । सूरदासजी कहते हैं कि अब (कलेऊ करके) हाथमें छोटी-सी छड़ी लेकर ये मेरे स्वामी खड़े हैं ।
[97]
हरि-कर राजत माखन-रोटी ।
मनु बारिज ससि बैर जानि जिय, गह्यौ सुधा ससुधौटी ॥
मेली सजि मुख-अंबुज भीतर, उपजी उपमा मोटी ।
मनु बराह भूधर सह पुहुमी धरी दसन की कोटी ॥
नगन गात मुसकात तात ढिग, नृत्य करत गहि चोटी ।
सूरज प्रभु की लहै जु जूठनि, लारनि ललित लपोटी ॥
भावार्थ / अर्थ :– श्यामसुन्दर के कर पर मक्खन और रोटी इस प्रकार शोभा दे रही है, मानो कमलने चंद्रमासे अपनी शत्रुता मनमें सोचकर (चन्द्रमासे छीनकर) अमृतपात्रके साथ अमृत ले रखा है । (दाँतोंसे काटनेके लिये) रोटीको सँभालकर श्यामने मुखकमलमें डाला इससे मुखकी बड़ी शोभा हो गयी–(माखन-रोटी लिये वह मुख ऐसा लग रहा है) मानो वाराह भगवान् ने पर्वतों के साथ पृथ्वीको दाँतोंकी नोकपर उठा रखा है । दिगम्बर-शरीर मोहन बाबाके पास हँसते हुए अपनी चोटी पकड़े नृत्य कर रहे हैं । सूरदास अपने प्रभुकी सुन्दर अमृतमय) लारसे लिपटी जूँठन (इस जूठी रोटीका टुकड़ा) कहीं पा जाता (तो अपना अहोभाग्य मानता !)
[98]
दोउ भैया मैया पै माँगत, दै री मैया, माखन रोटी ।
सुनत भावती बात सुतनि की, झूठहिं धाम के काम अगोटी ॥
बल जू गह्यौ नासिका-मोती, कान्ह कुँवर गहि दृढ़ करि चोटी ।
मानौ हंस-मोर भष लीन्हें, कबि उपमा बरनै कछु छोटी ॥
यह छबि देखि नंद-मन-आनँद, अति सुख हँसत जात हैं लोटी।
सूरदास मन मुदित जसोदा, भाग बड़े, कर्मनि की मोटी ॥
भावार्थ / अर्थ :– दोनों भाई मैयासे माँग रहे हैं- ‘अरी मैया! माखन-रोटी दे।’ माता पुत्रों की प्यारी बातें सुन रही है और (उनके मचलनेका आनन्द लेनेके लिये) झूठ-मूठ घरके काममें उलझी है । (इससे रूठकर) बलरामजी ने नाकका मोती पकड़ा और कुँवर कन्हाईने दोनों हाथोंमें दृढ़तासे (माताकी) चोटी (वेणी) पकड़ी, मानो हंस और मयूर अपना-अपना आहार (मोती और सर्प) लिये हों किंतु कविकेद्वारा वर्णित यह उपमा भी कुछ छोटी ही है (उस शोभाके अनुरूप नहीं)। यह शोभा देखकर श्रीनन्दजीका चित्त आनन्दमग्न हो रहा है; अत्यन्त प्रसन्नतासे हँसते हुए वे लोट-पोट हो रहे हैं । सूरदासजी कहते हैं कि यशोदा जी भी हृदयमें प्रमुदित हो रही हैं, वे बड़भागिनी हैं, उनके पुण्य महान हैं (जो यह आनन्द उन्हें मिल रहा है)।