61. राग आसावरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग आसावरी

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(एरी) आनँद सौं, दधि मथति जसोदा, घमकि मथनियाँ घूमै ।
निरतत लाल ललित मोहन, पग परत अटपटे भू मैं ॥
चारु चखौड़ा पर कुंचित कच, छबि मुक्ता ताहू मैं ।
मनु मकरंद-बिंदु लै मधुकर, सुत प्यावन हित झूमै ॥

बोलत स्याम तोतरी बतियाँ, हँसि-हँसि दतियाँ दूमै ।
सूरदास वारी छबि ऊपर, जननि कमल-मुख चूमै ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपिका कहती है-) ‘सखी! मैया यशोदा आनन्दसे दही मथ रही हैं,
उनकी मथानी घरघराती हुई घूम रही है । परम सुन्दर मोहनलाल नाच रहे हैं, उनके चरण
अटपटे भाव से पृथ्वीपर पड़ रहे हैं । उनके ललाटपर (काजलका) सुन्दर डिठौना (बिन्दु)
लगा है, उसपर घुँघराली अलकें झूम रही हैं और उनमें मोती गूँथे हैं, इन्हें देखकर
ऐसा प्रतीत होता है मानो भ्रमर मकरन्द (पुष्प-मधु) लेकर उसे अपने पुत्रको पिलानेके
लिये झूम हैं । श्यामसुन्दर हँस-हँसकर तोतली बातें कहते हैं, उनकी दँतुलियाँ चमक
रही हैं ।’ सूरदासजी कहते हैं कि उनकी शोभापर न्योछावर हुई माता उनके कमल-मुख
का चुम्बन करती हैं ।
राग-बिलावल

[85]

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त्यौं-त्यौं मोहन नाचै ज्यौं-ज्यौं रई-घमरकौ होइ (री) ।
तैसियै किंकिनि-धुनि पग-नूपुर, सहज मिले सुर दोइ (री)॥
कंचन कौ कठुला मनि-मोतिनि, बिच बघनहँ रह्यौ पोइ (री)।
देखत बनै, कहत नहिं आवै, उपमा कौं नहिं कोइ (री)॥
निरखि-निरखि मुख नंद-सुवन कौ, सुर-नर आनँद होइ (री)।
सूर भवन कौ तिमिर नसायौ, बलि गइ जननि जसोइ (री)॥

भावार्थ / अर्थ :– जैसे-जैसे मथानीकी घरघराहट होती है, वैसे-वैसे ही मोहन नाच रहे हैं ।
वैसे ही (कटिकी) किंकिणी और चरणों के नूपुर दोनोंके बजनेका स्वर स्वाभाविक रूपसे
मिल गया है । (गलेमें) सोनेका कठला है, मणि और मोतियोंकी मालाके बीचमें बघनखा
पिरोया है । यह छटा तो देखते ही बनती है, इसका वर्णन नहीं हो सकता; जिसके साथ
इसकी उपमा दी जा सके, ऐसी कोई वस्तु नहीं है । सूरदासजी कहते हैं – (अपनी अंग
कान्तिसे श्यामसुन्दर) भवनके अन्धकार को नष्ट कर चुके हैं (उन्होंने तीनों लोकोंके
तमसको नष्ट कर दिया है) मैया यशोदा उनपर बलिहारी जाती हैं ।

[86]

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प्रात समय दधि मथति जसोदा,
अति सुख कमल-नयन-गुन गावति ।
अतिहिं मधुर गति, कंठ सुघर अति,
नंद-सुवन चित हितहि करावति ॥
नील बसन तनु, सजल जलद मनु,
दामिनि बिवि भुज-दंड चलावति ।
चंद्र-बदन लट लटकि छबीली,
मनहुँ अमृत रस ब्यालि चुरावति ॥
गोरस मथत नाद इक उपजत,
किंकिनि-धुनि सनि स्रवन रमावति ।
सूर स्याम अँचरा धरि ठाढ़े,
काम कसौटी कसि दिखरावति ॥

भावार्थ / अर्थ :– प्रातःकाल यशोदाजी दहगी मथते समय अत्यन्त आनन्दसे अपने कमललोचन
कुमारके गुण गा रही हैं । बड़े सुन्दर कण्ठ से अत्यन्त मधुर लयमें श्रीनन्दनन्दनके
प्रति प्रेमपूर्ण चित्त लगाये हुए गा रही हैं । उनके शरीर पर नीली साड़ी ऐसी लगती
है मानो पानी भरे मेघ हों, । बिजलीके समान दोनों भुजाओं को वे हिला रही हैं ।
उनके चंद्रमुखपर सुन्दर अलकें ऐसी लटकी हैं मानो सर्पिणियाँ अमृतसरकी चोरी कर रही
हों । दही मथते समय (मथानीका) एक शब्द हो रहा है और उससे मिला करधनीका
शब्द सुनती हुई वे अपने कानोंको आनन्द दे रही हैं (उस शब्दमें स्वर मिलाकर गा रही
हैं)। सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दर उनका अञ्चल पकड़कर खड़े हैं, मानो कामदेव
को कसौटीपर कसकर दिखला रहे हैं । (कामदेव क्या इतना सुन्दर है? यह अपनी शोभासे
सूचित करते हुए काम के सौन्दर्यकी तुच्छता स्पष्ट कर रहे हैं ।)