राग आसावरी
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आनँद-प्रेम उमंगि जसोदा, खरी गुपाल खिलावै ।
कबहुँक हिलकै-किलकै जननी मन-सुख-सिंधु बढ़ावै ॥
दै करताल बजावति, गावति, राग अनूप मल्हावै ।
कबहुँक पल्लव पानि गहावै, आँगन माँझ रिंगावै ॥
सिव सनकादि, सुकादि, ब्रह्मादिक खोजत अंत न पावैं ।
गोद लिए ताकौं हलरावैं तोतरे बैन बुलावै ॥
मोहे सुर, नर, किन्नर, मुनिजन, रबि रथ नाहिं चलावै ।
मोहि रहीं ब्रज की जुवती सब, सूरदास जस गावै ॥
भावार्थ / अर्थ :– आनन्द और प्रेमसे उमंगमें भरी यशोदाजी खड़ी होकर (गोदमें लेकर) गोपालको खेला रही हैं । कभी वे उछलते हैं, कभी किलकारी मारते हैं, जिससे मैया के चित्तमें सुखसागरको अभिवर्धित करते हैं । माता ताली बजाती है और अनुपम रागसे लोरी गाकर दुलार करती है । कभी अपने पल्लवके समान कोमल हाथ पकड़ाकर आँगनमें चलाती है । शिव, सनकादि ऋषि शुकदेवादि परमहंस तथा ब्रह्मादि देवता ढूँढ़कर भी जिनका (जिनकी महिमाका) पार नहीं पाते,मैया उन्हींको गोदमें लेकर हिलाती (झुलाती) है और तोतली वाणी बुलवाती है । देवता, मनुष्य, किन्नर तथा मुनिगण- सब (इस लीलाको देखकर) मुग्ध हो रहे हैं, सूर्य (लीला-दर्शनसे मुग्ध होकर) अपने रथको आगे नहीं चलाते हैं, व्रजकी सभी युवतियाँ (इस लीलापर) मुग्ध हो रही हैं । सूरदास (इन्हीं श्यामका) सुयश गा रहा है ।