52. राग आसावरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग आसावरी

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देखो अद्भुत अबिगत की गति, कैसौ रूप धर््यौ है (हो)!
तीनि लोक जाकें उदर-भवन, सो सूप कैं कोन पर््यौ है (हो)!
जाकैं नाल भए ब्रह्मादिक, सकल जोग ब्रत साध्यो (हो)!
ताकौ नाल छीनि ब्रज-जुवती बाँटि तगा सौं बाँध्यौ (हो) !
जिहिं मुख कौं समाधि सिव साधी आराधन ठहराने (हो) !
सो मुख चूमति महरि जसोदा, दूध-लार लपटाने (हो) !
जिन स्रवननि जन की बिपदा सुनि, गरुड़ासन तजि धावै (हो) !

तिन स्रवननि ह्वै निकट जसोदा, हलरावै अरु गावै (हो) !
बिस्व-भरन-पोषन, सब समरथ, माखन-काज अरे हैं (हो) !
रूप बिराट कोटि प्रति रोमनि, पलना माँझ परे हैं (हो) !
जिहिं भुज बल प्रहलाद उबार््यौ, हिरनकसिप उर फारे (हो)
सो भुज पकरि कहति ब्रजनारी, ठाढ़े होहु लला रे (हो) !
जाकौ ध्यान न पायौ सुर-मुनि, संभु समाधि न टारी (हो)!
सोई सूर प्रगट या ब्रज मैं, गोकुल-गोप-बिहारी (हो) !

भावार्थ / अर्थ :– अविज्ञात-गति प्रभुकी यह अद्भुत लीला तो देखो ! (इन्होंने) कैसा रूप
धारण किया है ! तीनों लोक जिसके उदररूपी भवनमें रहते हैं, वह (अवतार लेकर)
सूपके कोनेमें पड़ा था । जिसकी (नाभिसे निकले, कमलनालसे ब्रह्माजी तथा ब्रह्माजीसे
सभी देवता उत्पन्न हुए, जिन्होंने सभी योग और व्रतोंकी साधनाकी, उसी (परम पुरुष) की
नालको काटकर व्रजयुवतियोंने बँटे हुए धागे से बाँधा । जिस श्रीमुखका दर्शन करने के
लिये आराधनामें एकाग्र होकर शंकरजी समाधि लगाते हैं, दूधकी लारसे सने उसी मुख
का व्रजरानी यशोदाजी चुम्बन करती हैं । जिन कानों से भक्तों की विपत्ति सुनकर
गरुड़को भी छोड़कर प्रभु दौड़ पड़ते हैं, उन्हीं कानोंके निकट मुख ले जाकर यशोदाजी
थपकी देते हुए (लोरी) गाती हैं । जो पूरे विश्वका भरण-पोषण करते हैं और जो सर्व
समर्थ हैं, वे मक्खन पानेके लिये हठ कर रहे हैं । जिनके विराट््रूपके एक-एक रोममें
कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड हैं, वे पलनेमें पड़े हैं । जिस भुजाके बलसे हिरण्यकशिपुका
हृदय फाड़कर प्रह्लादकी रक्षा की, (आज) उसी भुजाको पकड़कर व्रजकी नारियाँ कहती
हैं- ‘लाल! खड़ा तो हो जा!’ जिसको देवता और मुनि ध्यानमें भी नहीं पाते, शंकरजी
जिनसे समाधि (चित्तकी पूर्ण एकाग्रता) नहीं हटा पाते, सूरदासजी कहते हैं कि वही
प्रभु गोकुलके गोपोंमें क्रीड़ा करनेके लिये इस व्रजभूमिमें प्रकट हुए हैं ।