राग बिलावल
[64]
………..
चलत स्यामघन राजत, बाजति पैंजनि पग-पग चारु मनोहर ।
डगमगात डोलत आँगन मैं, निरखि बिनोद मगन सुर-मुनि-नर ॥
उदित मुदित अति जननि जसोदा, पाछैं फिरति गहे अँगुरी कर ।
मनौ धेनु तृन छाँड़ि बच्छ-हित , प्रेम द्वित चित स्रवत पयोधर ॥
कुंडल लोल कपोल बिराजत,लटकति ललित लटुरिया भ्रू पर ।
सूर स्याम-सुंदर अवलोकत बिहरत बाल-गोपाल नंद-घर ॥
भावार्थ / अर्थ :– घनश्याम चलते हुए अत्यन्त शोभित होते हैं, सुन्दर मनोहारी पैंजनी प्रत्येक पद रखनेके साथ बज रही है । आँगनमें कन्हाई डगमागाते हुए चलते हैं, उनकी इस क्रीड़ा को देखकर देवता, मुनि तथा सभी मनुष्य आनन्दमग्न हो रहे हैं । माता यशोदाको अत्यन्त आनन्द हो रहा है, वे हाथसे मोहन की अँगुली पकड़े साथ साथ घूम रही हैं, मानो बछड़ेके प्रेमसे गायने तृण चरना छोड़ दिया है । उनका हृदय प्रेम से पिघल गया है और स्तनोंसे दूध टपक रहा है । मोहनके कपोलोंपर चञ्चल कुंडल शोभा दे रहे हैं, भौंहों तक सुन्दर बालोंकी लटें लटक रही हैं । बालगोपाल रूपसे व्रजराज नन्दजी के भवनमें क्रीड़ा करते श्यामसुन्दर को सूरदास देख रहा है । राग-गौरी
[65]
…………
भीतर तैं बाहर लौं आवत ।
घर-आँगन अति चलत सुगम भए, देहरि अँटकावत ॥
गिरि-गिरि परत, जात नहिं उलँघी, अति स्रम होत नघावत ।
अहुँठ पैग बसुधा सब कीनी, धाम अवधि बिरमावत ॥
मन हीं मन बलबीर कहत हैं, ऐसे रंग बनावत ।
सूरदास प्रभु अगनित महिमा, भगतनि कैं मन भावत ॥
भावार्थ / अर्थ :– कन्हाई घरके भीतरसे अब बाहरतक आ जाते हैं । घरमें और आँगनमें चलना अब उनके लिये सुगम हो गया है; किंतु देहली रोक लेती है । उसे लाँघा नहीं जाता है, लाँघनेमें बड़ा परिश्रम होता है, बार-बार गिर पड़ते हैं । बलरामजी (यह देखकर) मन-ही मन कहते हैं – ‘इन्होंने (वामनावतारमें) पूरी पृथ्वी तो साढ़े तीन पैरमें नापली और ऐसा रंग-ढंग बनाये हैंकि घर की देहली इन्हें रोक रही है ।’ सूरदासके स्वामीकी महिमा गणनामें नहीं आती, वह भक्तोंके चित्तको रुचती (आनन्दित करती) है ।