राग बिलावल
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बाल-बिनोद आँगन की डोलनि ।
मनिमय भूमि नंद कैं आलय, बलि-बलि जाउँ तोतरे बोलनि ॥
कठुला कंठ कुटिल केहरि-नख, ब्रज-माल बहु लाल अमोलनि ।
बदन सरोज तिलक गोरोचन, लट लटकनि मधुकर-गति डोलनि ॥
कर नवनीत परस आनन सौं, कछुक खात, कछु लग्यो कपोलनि ।
कहि जन सूर कहाँ लौं बरनौं, धन्य नंद जीवन जग तोलनि ॥
भावार्थ / अर्थ :– नंद-भवनके आँगनकी मणिमय भूमिपर बालक्रीड़ा से श्याम के घूमने तथा तोतली वाणीपर मैं बार-बार बलिहारी जाता हूँ । गलेमें कठुला है, टेढ़े नखोंवाला बघ नखा है और हीरोंकी माला है, जिसमें बहुत से अमूल्य लाल लगे हैं, कमल के समान मुख हैं, गोरोचनका तिलक लगा है, अलकें लटकी हुई हैं और भौंरों के समान हिलती हैं । हाथमें लिये मक्खनको मुखसे लगाते हैं, कुछ खाते हैं और कुछ कपोलों में लग गया है । यह सेवक सूरदास कहाँ तक वर्णन करे, श्रीनन्दरायजीका जीवन धन्य है–संसारमें अपनी तुलना वह स्वयं ही है ।
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गहे अँगुरियाँ ललन की, नँद चलन सिखावत ।
अरबराइ गिरि परत हैं, कर टेकि उठावत ॥
बार-बार बकि स्याम सौं कछु बोल बुलावत ।
दुहुँघाँ द्वै दँतुली भई, मुख अति छबि पावत ॥
कबहुँ कान्ह-कर छाँड़ि नँद, पग द्वैक रिंगावत ।
कबहुँ धरनि पर बैठि कै, मन मैं कछु गावत ॥
कबहुँ उलटि चलैं धाम कौं, घुटुरुनि करि धावत ।
सूर स्याम-मुख लखि महर, मन हरष बढ़ावत ॥
भावार्थ / अर्थ :– श्रीनन्दजी अपने लालकी अँगुली पकड़कर उन्हें चलना सिखला रहे हैं । (श्याम) लड़खड़ाकर गिर पड़ते हैं, तब हाथका सहारा देकर उन्हें उठाते हैं, बार-बार श्यामसे कुछ कहकर उनसे भी कुछ बुलवाते हैं । मोहन के (मुखमें) दोनों ओर ऊपर- नीचे दो-दो दँतुलियाँ (छोटे दाँत) निकल आयी हैं, इससे उनका मुख अत्यन्त शोभित हो रहा है । कभी कन्हाई श्रीनन्दजीका हाथ छोड़कर दो पद चलता है, कभी पृथ्वीपर बैठकर मन-ही-मन कुछ गाता है । कभी मुड़कर घुटनोंके बल भागता घरके भीतर की ओर चल पड़ता है । सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दरका मुख देख-देखकर व्रजराजके हृदयमें आनन्द बढ़ता जाता है ।