राग बिलावल
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सिखवति चलन जसोदा मैया ।
अरबराइ कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरै पैया ॥
कबहुँक सुंदर बदन बिलोकति, उर आनँद भरि लेति बलैया ।
कबहुँक कुल देवता मनावति, चिरजीवहु मेरौ कुँवर कन्हैया ॥
कबहुँक बल कौं टेरि बुलावति, इहिं आँगन खेलौ दोउ भैया ।
सूरदास स्वामी की लीला, अति प्रताप बिलसत नँदरैया ॥
भावार्थ / अर्थ :– माता यशोदा (श्यामको) चलना सिखा रही हैं । जब वे लड़खड़ाने लगते हैं, तब उसके हाथोंमें अपना हाथ पकड़ा देती हैं, डगमगाते चरण वे पृथ्वीपर रखते हैं । कभी उनका सुन्दर मुख देखकर माताका हृदय आनन्द से पूर्ण हो जाता है वे बलैया लेने लगती हैं । कभी कुल-देवता मनाने लगती हैं कि ‘मेरा कुँवर कन्हाई चिरजीवी हो ।’ कभी पुकार कर बलरामको बुलाती हैं (और कहती हैं-) ‘दोनों भाई इसी आँगनमें मेरे सामने खेलो । ‘सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामीकी यह लीला है की श्रीनन्दरायजीका प्रताप और वैभव अत्यन्त बढ़ गया है ।
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भावत हरि कौ बाल-बिनोद ।
स्याम -राम-मुख निरखि-निरखि सुख-मुदित रोहिनी, जननि जसोद ॥
आँगन-पंक-राग तन सोभित, चल नूपुर-धुनि सुनि मन मोद ।
परम सनेह बढ़ावत मातनि, रबकि-रबकि हरि बैठत गोद ॥
आनँद-कंद, सकल सुखदायक, निसि-दिन रहत केलि-रस ओद ।
सूरदास प्रभु अंबुज-लोचन, फिरि-फिरि चितवत ब्रज-जन-कोद ॥
भावार्थ / अर्थ :– हरिका बाल-विनोद बहुत प्रिय लगता है । घनस्याम और बलरामके मुखों को देख-देखकर माता रोहिणी और मैया यशोदा आनन्द से प्रमुदित होती हैं । आँगनकी कीच से दोनों भाइयों के शरीर सने शोभित हो रहे हैं । चलते समय नूपुरकी ध्वनि होती, जिसे सुनकर मनमें अत्यन्त आल्हाद होता है । श्रीहरि उछल-उछलकर माताओंकी गोदमें बैठते हैं और उनके उत्कृष्ट स्नेह को बढ़ाते हैं । आनन्दकन्द, समस्त सुखोंके दाता हरि रात-दिन क्रीड़ाके आनन्द रसमें भीगे रहते हैं । सूरदासके ये कमललोचन स्वामी बार-बार मुड़- मुड़कर व्रजजनोंकी ओर देखते हैं ।