39. राग सारंग – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग सारंग

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मैं बलि स्याम, मनोहर नैन ।

जब चितवत मो तन करि अँखियन, मधुप देत मनु सैन ॥

कुंचित, अलक, तिलक गोरोचन, ससि पर हरि के ऐन ।

कबहुँक खेलत जात घुटुरुवनि, उपजावत सुख चैन ॥

कबहुँक रोवत-हँसत बलि गई, बोलत मधुरे बैन ।

कबहुँक ठाढ़े होत टेकि कर, चलि न सकत इक गैन ॥

देखत बदन करौं न्यौछावरि, तात-मात सुख-दैन ।

सूर बाल-लीला के ऊपर, बारौं कोटिक मैन ॥

भावार्थ / अर्थ :– (माता कहती है-) श्यामके मनोहारी नेत्रोंकी मैं बलिहारी जाती हूँ । जब मेरी ओर आँखें करके वह मेरे मुखकी ओर देखता है तो लगता है मानो भौंरे ही कोई संकेत कर रहे हैं । हरिके चन्द्रमुखपर घुँघराली अलकें छायी हैं और (भालपर) गोरोचनका तिलक लगा है । कभी घुटनों चलते हुए खेलता है और सुख-चैन उत्पन्न करता है, कभी रोता है, कभी हँसता है, मैं तो उसकी मधुर बाणीपर बलि जाती हूँ । कभी हाथ टेककर खड़ा ही जाता है, किंतु अभी एक पद भी नहीं चल सकता । उसका मुख देखकर मैं अपने आपको न्यौछावर करती हूँ, वह माता-पिता को सुख देनेवाला है । सूरदासजी कहते हैं – इस बाललीलाके ऊपर करोड़ों कामदेवोंको न्यौछावर करता हूँ ।