राग बिलावल
[36]
……………
जसुमति भाग-सुहागिनी, हरि कौं सुत जानै ।
मुख-मुख जोरि बत्यावई, सिसुताई ठानै ॥
मो निधनी कौ धन रहै, किलकत मन मोहन ।
बलिहारी छबि पर भई ऐसी बिधि जोहन ॥
लटकति बेसरि जननि की, इकटक चख लावै ।
फरकत बदन उठाइ कै, मन ही मन भावै ॥
महरि मुदित हित उर भरै, यह कहि, मैं वारी ।
नंद-सुवन के चरित पर, सूरज बलिहारी ॥
सौभाग्यशालिनी श्रीयशोदाजी श्रीहरिको अपना पुत्र समझती हैं।
(वात्सल्य प्रेम करती हुई) उनके मुखसे अपना मुख सटाकर बातें करती हैं ।
श्यामसुन्दर लड़कपन ठान लेते हैं (हाथसे मैयाकी नाक पकड़ लेते हैं) (वह कहती है-) ‘मुझ कंगालिनीका धन यह मनमोहन किलकता (प्रसन्न) रहे । लाल! तेरे इस प्रकार देखने तथा तेरी छटापट मैं बलिहारी हूँ ।’माताकी लटकती हुई बेसरपर मोहन एकटक दृष्टि लगाये हैं, कभी ओठ फड़काते हुए मुख उठाकर मन-ही-मन मुदित होते हैं । व्रजरानी यह कहकर कि ‘लाल’ मैं तुझपर न्यौछावर हूँ, हर्षित होकर प्रेम से उठाकर हृदय से लगा लेती हैं । सूरदास श्रीनन्द नन्दनकी इस शिशुलीलापर बलिहारी जाता है ।