राग रामकली
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हरषे नंद टेरत महरि ।
आइ सुत-मुख देखि आतुर, डारि दै दधि-डहरि ॥
मथति दधि जसुमति मथानी, धुनि रही घर-घहरि ।
स्रवन सुनति न महर बातैं, जहाँ-तहँ गइ चहरि ॥
यह सुनत तब मातु धाई, गिरे जाने झहरि ।
हँसत नँद-मुख देखि धीरज तब कर््यौ ज्यौ ठहरि ॥
श्याम उलटे परे देखे, बढ़ी सोभा लहरि ।
सूर प्रभु कर सेज टेकत, कबहुँ टेकत ढहरि ॥
श्रीनन्दजी आनन्दित होकर व्रजरानीको पुकार रहे हैं -‘ दहीका मटका एक ओर रख दो
। झटपट आकर पुत्रका मुख देखो।’ लेकिन श्रीयशोदाजी मथानी लिये दधि-मन्थन कर रही
हैं, घरमें (दही मथनेके) घरघराहटका शब्द हो रहा है, स्थान-स्थानपर चहल-पहल हो
रही है, इसलिए व्रजरानी श्रीनन्दजीकी पुकार कानों से सुन नहीं पातीं। लेकिन जब
उन्होंने पुकार सुनी तो यह समझकर कि (कन्हाई पलने से) गिर पड़ा है, झपटकर दौड़
पड़ीं; किंतु श्रीनन्दजी का हँसी से खिला मुख देखकर उन्हें धैर्य हुआ और हृदयकी
धड़कन रुकी । (पास आकर) श्यामसुन्दरको उलटे पड़े देख वहाँ छबिकी लहर बढ़ गयी ।
सूरदासजी कहते हैं -प्रभु (सीधे होनेके लिये) कभी हाथोंको पलँगपर टेक रहे थे और कभी
पाटीपर टेक रहे थे ।
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महरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी ।
चिरजीवौ मेरौ लाड़िलौ, मैं भई सभागी ॥
एक पाख त्रय-मास कौ मेरौ भयौ कन्हाई ।
पटकि रान उलटो पर््यौ, मैं करौं बधाई ॥
नंद-घरनि आनँद भरी, बोलीं ब्रजनारी ।
यह सुख सुनि आई सबै, सूरज बलिहारी ॥
श्रीव्रजरानी (प्रभुको) उलटा करके (पीठके बल सीधे लिटाकर) आनन्दित होकर उनके मुखका
चुम्बन करने लगीं । (बोलीं) ‘मेरा प्यारा लाल चिरजीवी हो ! मैं आज भाग्यवती हो गयी।
मेरा कन्हाई साढ़े तीन महीनेका ही हुआ है, पर आज जानुओंको टेककर स्वयं उलटा हो
गया । मैं आज इसका मंगल बधाई बँटवाऊँगी ।’ आनन्दभरी
श्रीव्रजरानी ने व्रजकी गोपियोंको बुलवाया । यह संवाद पाकर सब वहाँ आ गयीं । सूरदास
इस छबिपर बलिहारी हैं।
[33]
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जो सुख ब्रज मैं एक घरी ।
सो सुख तीनि लोक मैं नाहीं धनि यह घोष-पुरी ॥
अष्टसिद्धि नवनिधि कर जोरे, द्वारैं रहति खरी ।
सिव-सनकादि-सुकादि-अगोचर, ते अवतरे हरी ॥
धन्य-धन्य बड़भागिनि जसुमति, निगमनि सही परी ।
ऐसैं सूरदास के प्रभु कौं, लीन्हौ अंक भरी ॥
भावार्थ / अर्थ :– व्रजमें जो आनन्द प्रत्येक घड़ी हो रहा है, वह आनन्द तीनों लोकों में नहीं है । यह
गोप-नगरी धन्य है । आठों सिद्धियाँ और नवों निधियाँ द्वारपर यहाँ हाथ जोड़े खड़ी
रहती हैं; क्योंकि शिव, सनकादि ऋषि तथा शुकदेवादि परमहंसों के लिये भी जिनका दर्शन
दुर्लभ है, उन श्रीहरिने यहाँ अवतार लिया है । परम सौभाग्यवती श्रीयशोदाजी धन्य
हैं, धन्य हैं, यह आज वेद भी सत्य मानते हैं (इसपर उन्होंने हस्ताक्षर कर दिया है )
क्योंकि सूरदास के ऐसे महिमामय प्रभु को उन्होंने गोदमें ले लिया है ।
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यह सुख सुनि हरषीं ब्रजनारी । देखन कौं धाईं बनवारी ॥
कोउ जुवती आई , कोउ आवति । कोउ उठि चलति, सुनत सुख पावति ॥
घर-घर होति अनंद-बधाई । सूरदास प्रभु की बलि जाई ॥
यह आनन्द-संवाद (कि कन्हाई ने आज स्वयं करवट ले ली है) सुनकर व्रजकी स्त्रियाँ
हर्षित हो गयीं । वे वनमाली श्यामसुन्दरको देखने दौड़ पड़ीं।
कोई युवती (नन्दभवनमें) आ गयी है, कोई आ रही है, कोई उठकर चली है, कोई
समाचार सुनते ही आनन्दमग्न हो रही है । घर-घर आनन्द-बधाई बँट रही है ।
सूरदास अपने प्रभुपर बलिहारी जाता है ।
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जननी देखि, छबि बलि जाति ।
जैसैं निधनी धनहिं पाएँ, हरष दिन अरु राति ॥
बाल-लीला निरखि हरषति, धन्य धनि ब्रजनारि ।
निरखि जननी-बदन किलकत, त्रिदस-पति दै तारि ॥
धन्य नँद, धनि धन्य गोपी, धन्य ब्रज कौ बास ।
धन्य धरनी करन पावन जन्म सूरजदास ॥
भावार्थ / अर्थ :– माता (श्यामकी) शोभा देखकर बलिहारी जाती है । जैसे निर्धनको धन प्राप्त हो जाने से
रात-दिन आनन्द हो रहा हो । (श्रीकृष्णचन्द्रकी) बाल-लीला देखकर हर्षित होनेवाली
व्रज की नारियाँ धन्य हैं । त्रिलोकीनाथ प्रभु माताका मुख देखकर ताली बजाकर (हाथ
परस्पर मिलाकर) किलकारी मारते हैं । व्रजराज श्रीनन्दजी धन्य हैं ये गोपिकाए धन्य-
धन्य हैं और जिन्हें व्रजमें निवास मिला है वे भी धन्य हैं । सूरदास कहते हैं कि
पृथ्वीको पवित्र करनेवाला प्रभुका अवतार धन्य है ।