राग बिलावल
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अजिर प्रभातहिं स्याम कौं, पलिका पौढ़ाए ।
आप चली गृह-काज कौं, तहँ नंद बुलाए ॥
निरखि हरषि मुख चूमि कै, मंदिर पग धारी ।
आतुर नँद आए तहाँ जहँ ब्रह्म मुरारी ॥
हँसे तात मुख हेरि कै, करि पग-चतुराई ।
किलकि झटकि उलटे परे, देवनि-मुनि-राई ॥
सो छबि नंद निहारि कै, तहुँ महरि बुलाई ।
निरखि चरति गोपाल के, सूरज बलि जाई ॥
भावार्थ / अर्थ :– (माता यशोदाने) प्रातःकाल श्यामसुन्दरको आँगनमें छोटी पलंगिया (खटुलिया) पर लिटा दिया । श्रीव्रजराजको वहाँ बुलाकर स्वयं घरका कार्य करने जाने लगीं । पुत्रका मुख देखकर हर्षित होकर उसका चुम्बन लेकर वे भवनमें चली गयीं ।साक्षात् परब्रह्म मूरके शत्रु श्रीकृष्णचन्द्र जहाँ सोये थे, वहाँ श्रीनन्दजी शीघ्रतापूर्वक आ गये । (श्याम सुन्दर) पिताका मुख देखकर हँसे और पैरों से चतुराई करके (पैरोंको एक ओर करके) किलकारी मारकर वे देवताओं तथा मुनियोंके स्वामी झटकेसे गये । (पेटके बल हो गये)। यह शोभा देखकर श्रीनन्दजीने व्रजरानीको वहाँ बुलाया । गोपाल की लीला देख-देखकर सूरदास उनपर न्योछावर होता है।