राग देवगंधार
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द्रुम चढ़ि काहे न टेरौ कान्हा, गैयाँ दूरि गई ।
धाई जाति सबनि के आगैं, जे बृषभानु दईं ॥
घेरैं घिरतिं न तुम बिनु माधौ, मिलति न बेगि दईं ।
बिडरतिं फिरतिं सकल बन महियाँ, एकै एक भई ॥
छाँड़ि खेई सब दौरि जात हैं, बोलौं ज्यौ सिखईं ।
सूरदास-प्रभु-प्रेम समुझि, मुरली सुनि आइ गईं ॥
(सखा कहते हैं-) ‘कन्हाई ! वृक्षपर चढ़कर पुकारते क्यों नहीं ? देखो, गायें दूर चली गयीं । जो (गायें) वृषभानुजीने दी थीं, वे सबके आगे दौड़ी जा रही हैं । माधव! तुम्हारे बिना ये घेरकर लौटानेमें नहीं आतीं । हा देव! ये तो शीघ्र मिलती ही नहीं । सम्पूर्ण वनमें ये भड़कती भाग रही हैं । सभी एक-दूसरीसे पृथक हो गयी हैं । अपने झुण्ड को छोड़कर सब दौड़ी जाती हैं; मेरे स्वामीका प्रेम समझकर सब वंशीकी धवनि सुनते ही लौट आयीं ।