234. राग नट – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग नट

[322]

………..$

चले बन धेनु चारन कान्ह ।

गोप-बालक कछु सयाने, नंद के सुत नान्ह ॥

हरष सौं जसुमति पठाए, स्याम-मन आनंद ।

गाइ गो-सुत गोप बालक, मध्य श्रीनँद-नंद ॥

सखा हरि कौं यह सिखावत, छाँड़ि जिनि कहुँ जाहु ।

सघन बृंदाबन अगम अति, जाइ कहुँ न भुलाहु ॥

सूर के प्रभु हँसत मन मैं, सुनत हीं यह बात ।

मैं कहूँ नहिं संग छाँड़ौं, बनहि बहुत डरात ॥

भावार्थ / अर्थ :– कन्हाई वनमें गायें चराने जा रहे हैं । गोपबालक कुछ बड़े हैं, नन्द नन्दन सबसे छोटे हैं । यशोदाजीने उन्हें प्रसन्नतापूर्वक भेज दिया, इससे कन्हाईका चित्त प्रसन्न है । गाय, बछड़े और गोपबालकोंके बीचमें श्रीनन्दनन्दन हैं । सखा श्यामसुन्दरको यही सिखला रहे हैं कि ‘हमलोगोंको छोड़कर कहीं जाना मत; क्योंकि वृन्दावन खूब घना और अत्यन्त अगम्य है, (अन्यत्र) कहीं जाकर (मार्ग) न भूल जाना’ सूरदासके स्वामी यह बात सुनकर मन-ही-मन हँस रहे हैं (कहते हैं-‘मैं कहीं तुम्हारा साथ नहीं छोड़ूँगा, वनसे मैं बहुत डरता हूँ ।’