227. राग कान्हरौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग कान्हरौ

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आजु बने बन तैं ब्रज आवत ।

नाना रंग सुमन की माला, नंदनँदन-उर पर छबि पावत ॥

संग गोप गोधन-गन लीन्ह, नाना कौतुक उपजावत ।

कोउ गावत, कोउ नृत्य करत, कोउ उघटत, कोउ करताल बजावत ॥

राँभति गाइ बच्छ हित सुधि करि, प्रेम उमँगि थन दूध चुवावत ।

जसुमति बोलि उठी हरषित ह्वै, कान्हा धेनु चराए आवत ॥

इतनी कहत आइ गए मोहन, जननी दौरि हिए लै लावत ।

सूर स्याम के कृत्य जसोमति, ग्वाल-बाल कहि प्रगट सुनावत ॥

भावार्थ / अर्थ :– आज मोहन वनसे सजे हुए आ रहे हैं । अनेक रंगोंके पुष्पोंकी माला श्री नन्दनन्दनके वक्षःस्थलपर शोभा दे रही है । साथमें गोपकुमार तथा गायोंका समूह लिये अनेक प्रकारकी चाल चलकर कुतुहलकी सृष्टि करते आते हैं । कोई गाता है, कोई समयपर तान तोड़ रहा है, कोई उछलता है और कोई हाथसे तालियाँ बजाता है । गायें बछड़ोंका स्मरण करके उनके लिये प्रेमसे रँभा रही है और प्रेमसे उमंगमें भरकर थनोंसे दूध टपका रही हैं । श्रीयशोदाजी हर्षित होकर पुकार उठीं — ‘कन्हाई गायें चराकर आ रहा है । (उनके) इतना कहते ही मोहन आ गये, माता दौड़कर (उठाकर) उन्हें हृदयसे लगा रही हैं । सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दरके (वनमें किये) काम गोपबालक स्पष्ट वर्णन करके यशोदाजीको सुनाते हैं ।