राग बिलावल
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जसुदा तोहिं बाँधि क्यौं आयौ ।
कसक्यौ नाहिं नैकु मन तेरौ, यहै कोखि कौ जायौ ॥
सिव-बिरंचि महिमा नहिं जानत, सो गाइनि सँग धायौ ।
तातैं तू पहचानति नाहीं, कौन पुण्य तैं पायौ ॥
कहा भयौ जो घरकैं लरिका, चोरी माखन खायौ ?
इतनी कहि उकसारत बाहैं, रोष सहित बल धायौ ॥
अपनैं कर सब बंधन छोरे, प्रेम सहित उर लायौ ।
सूर सुबचन मनोहर कहि-कहि अनुज-सूल बिसरायौ ॥
भावार्थ / अर्थ :– (श्रीबलरामजी कहते हैं-) ‘यशोदाजी! तुमसे (कन्हाई) बाँधा कैसे गया ? तुम्हारे चित्तमें तनिक भी पीड़ा नहीं हुई ? यह तुम्हारी इसी कोखसेतो उत्पन्न हुआ है । जिसका माहात्म्य शंकर और ब्रह्माजी भी नहीं जानते , (वही तुम्हारे प्रेमवश) यहाँ गायोंके साथ दौड़ता है, इसलिये तुम इसे पहचानती नहीं हो, पता नहीं किस पुण्यसे तुमने इसे पाया है । हुआ क्या जो घरके लड़केने चोरीसे मक्खन खा लिया ?’ इतनी बात कहकर अपनी बाँहें उभारते हुए बलराम क्रोधपूर्वक दोढ़ पड़े । अपने हाथों उन्होंने सब बन्धन खोल दिये और प्रेमसे (छोटे भाईको) हृदयसे लगा लिया । सूरदासजी कहते हैं कि सुन्दर मनोहर बातें कह-कहकर अपने छोटे भाईकी पीड़ा उन्होंने भुलवा दी ।