184. राग धनाश्री – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग धनाश्री

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ऐसी रिस तोकौं नँदरानी ।

बुद्धि तेरैं जिय उपजी बड़ी, बैस अब भई सयानी ॥

ढोटा एक भयौ कैसैहूँ करि, कौन-कौन करबर बिधि भानी |

क्रम-क्रम करि अब लौं उबर््यौ है, ताकौं मारि पितर दै पानी ॥

को निरदई रहै तेरैं घर, को तेरैं सँग बैठे आनी ।

सुनहु सूर कहि-कहि पचि हारीं , जुबती चलीं घरनि बिरुझानी ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपियाँ कहती हैं -) ‘नन्दरानी! तुममें इतना क्रोध है ? कब तुम्हारे हृदयमें बुद्धि आवेगी ? तुम्हारी अवस्था बड़ी है (तुम बूढ़ी हो चली हो ) और वैसे भी तुम समझदार हो । पता नहीं कौन-कौनसे संकट विधाताने काटे हैं और किसी प्रकार तुम्हारे एक पुत्र हुआ । क्रमशः (अनेक विपत्तियों से) वह अबतक बचता रहा, अब उसीको मारकर अपने पितरोंको जल दे लो । कौन इतनी निर्दय है जो तुम्हारे घर रहे और कौन तुम्हारे पास आकर बैठे ।’ सूरदासजी कहतेहैं कि गोपियाँ कह-कहकर, प्रयत्न करके जब थक गयीं (और यशोदाजीने श्यामको नहीं छोड़ा) तब वे अप्रसन्न होकर अपने घरोंको चली गयीं।