180. राग केदारा – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग केदारा

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देखि री नंद-नंदन ओर ।

त्रास तैं तन त्रसित भए हरि, तकत आनन तोर ॥

बार-बार डरात तोकौं, बरन बदनहिं थोर ।

मुकुर-मुख, दोउ नैन ढ़ारत, छनहिं-छन छबि-छोर ॥

सजल चपल कनीनिका पल अरुन ऐसे डोंर (ल) ।

रस भरे अंबुजन भीतर भ्रमत मानौ भौंर ॥

लकुट कैं डर देखि जैसे भए स्रोनित और ।

लाइ उरहिं, बहाइ रिस जिय, तजहु प्रकृति कठोर ॥

कछुक करुना करि जसोदा, करति निपट निहोर ।

सूर स्याम त्रिलोक की निधि, भलैहिं माखन-चोर ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपी कहती है-) ‘सखी (यशोदाजी) नन्दनन्दन की ओर देखो ! भयसे कंपित -शरीर होकर श्यामसुन्दर तुम्हारे मुखकी ओर देख रहें हैं । बार बार तुमसे डर रहें हैं, मुखकी कान्ति घट गयी है, क्षण-क्षणपर दोनों नेत्रोंसे दर्पणके समान निर्मल कपोलोंपर अश्रु ढुलका रहे हैं ! ये तो शोभाकी सीमा हैं, अश्रुभरे पलक हैं तथा चञ्चल पुतलियोंपर ऐसे लाल डोरे हैं, मानो रसभरे कमलोंके भीतर भौरें घूम रहे हों ! छड़ीके भयसे ये नेत्र ऐसे दीखते हैं जैसे औरभी लाल हो उठे हों! इन्हें हृदयसे लगा लो, चित्तसे क्रोध दूर करदो और इस कठोर स्वभावको छोड़ दो । यशोदाजी, मैं अत्यन्त निहोरा (अनुनय) करती हूँ, कुछ तो दया करो ।’ सूरदासजी कहते हैं – श्यामसुन्दर भले माखन-चोर हों, परंतु वे त्रिलोकी की निधि हैं ।