179. राग सोरठ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग सोरठ

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(जसोदा) तेरौ भलौ हियौ है माई !

कमल-नैन माखन कैं कारन, बाँधे ऊखल ल्याई ॥

जो संपदा देव-मुनि-दुर्लभ, सपनेहुँ देइ न दिखाई ।

याही तैं तू गर्ब भुलानी, घर बैठे निधि पाई ॥

जो मूरति जल-थल मैं ब्यापक, निगम न खौजत पाई ।

सो मूरति तैं अपनैं आँगन, चुटकी दै जु नचाई ॥

तब काहू सुत रोवत देखति, दौरि लेति हिय लाई ।

अब अपने घर के लरिका सौं इती करति निठुराई ॥

बारंबार सजल लोचन करि चितवत कुँवर कन्हाई ।

कहा करौं, बलि जाउँ, छोरि तू, तेरी सौंह दिवाई ॥

सुर-पालक, असुरनि उर सालक, त्रिभुवन जाहि डराई ।

सूरदास-प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाई ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपी कहती है-) ‘सखी यशोदाजी! तुम्हारा अच्छा (कठोर) हृदय है, जो मक्खनके लिये लाकर कमल-लोचनको तुमने ऊखलसे बाँध दिया । जो सम्पत्त देवता तथा मुनियोंको भी दुर्लभ है, स्वप्नमें भी उन्हे दिखलायी नहीं पड़ती, वही महान् निधि घर बैठे तुमने पा ली इसीसे गर्वमें ( अपने-आपको) भूल गयी हो । जो मूर्ति जल-स्थलमें सर्वत्र व्यापक है, वेद ढूँढ़कर भी जिसे नहीं पा सके, उसी मूर्ति (साकार ब्रह्म)को तुमने अपने आँगनमें चुटकी बजाकर नचाया है ! तब तो (जब पुत्र नहीं था) किसीके भी लड़के को रोते देखकर दौड़कर हृदयसे लगा लेती थीं और अब अपने घरके बालकसे ही इतनी निष्ठुरता कर रही हो ? कुँवर कन्हाई बार-बार नेत्रोंमें आँसू भरकर देखता है । क्या करूँ मैं बलिहारी जाती हूँ, तुम्हारी ही शपथ तुम्हें दिलाती हूँ कि इसे तुम छोड़ दो ।’ सूरदासजी कहते हैं कि जो देवताओंके भी पालनकर्ता तथा असुरों के हृदयको पीड़ा देनेवाले हैं–(यही नहीं) त्रिभुवन जिनसे डरता है, मेरे उन प्रभुकी यह लीला है । (इसीसे तो) वेद ‘नेति-नेति (इनका अन्त नहीं है, नहीं है) कहकर नित्य (इनका) गान करता है ।

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