173. राग धनाश्री – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग धनाश्री

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कहा भयौ जौ घर कैं लरिका चोरी माखन खायौ ।

अहो जसोदा! कत त्रासति हौ, यहै कोखि कौ जायौ ॥

बालक अजौं अजान न जानै केतिक दह्यौ लुटायौ ।

तेरौ कहा गयौ? गोरस को गोकुल अंत न पायौ ॥

हा हा लकुट त्रास दिखरावति, आँगन पास बँधायौ ।

रुदन करत दोउ नैन रचे हैं, मनहुँ कमल-कन-छायौ ॥

पौढ़ि रहे धरनी पर तिरछैं, बिलखि बदन मुरझायौ ।

सूरदास-प्रभु रसिक-सिरोमनि, हँसि करि कंठ लगायौ ॥

भावार्थ / अर्थ :– (कोई गोपी कहती है-)’क्या हुआ जो घरके लड़केने चोरीसे मक्खन खा लिया ? अरी यशोदाजी ! इसे क्यों भयभीत करती हो, आखिर यह तुम्हारी इसी कोख (पेट) से (तो) उत्पन्न हुआ है । अभी यह अनजान बालक है, यह समझता नहीं कि कितनी दही मैंने ढुलका दिया । किंतु तुम्हारी हानि क्या हुई ? तुम्हारे पास तो इतना गोरस है कि पूरा गोकुल उसका अन्त (थाह) नहीं पा सकता । हाय, हाय छड़ी लेकर तुम इसे भय दिखलाती हो और (खुले) आँगनमें पाशसे बाँध रखा है ! रोनेसे इसके दोनों नेत्र ऐसे हो गये हैं मानो कमलदल पर जलकण छिटके हों । यह पृथ्वी पर तिरछे होकर लेट रहा है, रोते रोते इसका मुख मलिन पड़ गया है ।’ सूरदासके स्वामी तो रसिक-शिरोमणि हैं, (माता ने रस्सी खोलकर ) हँसकर उन्हें गले लगा लिया ।

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चित दै चितै तनय-मुख ओर ।

सकुचत सीत-भीत जलरुह ज्यौं, तुव कर लकुट निरखि सखि घोर ॥

आनन ललित स्रवत जल सोभित, अरुन चपल लोचन की कोर ।

कमल-नाल तैं मृदुल ललित भुज ऊखल बाँधे दाम कठोर ॥

लघु अपराध देखि बहु सोचति, निरदय हृदय बज्रसम तोर ।

सूर कहा सुत पर इतनी रिस, कहि इतनै कछु माखन-चौर ॥

भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं- (गोपी कह रही है-) तनिक मन लगाकर (ध्यानसे)पुत्रके मुखकी ओर तो देखो । सखी ! तुम्हारे हाथमें भयानक छड़ी देखकर यह भयसे इस प्रकार संकुचित हो रहा हो । सुन्दर मुखपर अरुण एवं चञ्चल नेत्रों के कोनोंसे टपकते आँसू शोभित हो रहे हैं । कमल-नालसे भी कोमल इसकी सुन्दर भुजाओंको तुमने कठोर रस्सीसे ऊखलके साथ बाँध दिया है । इसके छोटे-से अपराधको देखकर मुझे बहुत चिन्ता हो रही है; किंतु तुम तो निर्दय हो, तुम्हारा हृदय वज्रके समान कठोर है । अरे, पुत्र पर इतना क्रोध भी क्या, बताओ तो इतना कितना अधिक मक्खन इसने चुरा लिया ।’