171. राग बिहागरौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग बिहागरौ

[236]

……………

कहौ तौ माखन ल्यावैं घर तैं ।

जा कारन तू छोरति नाहीं, लकुट न डारति कर तैं ॥

सुनहु महरि ! ऐसी न बूझियै, सकुचि गयौ मुख डर तैं ।

ज्यौं जलरुह ससि-रस्मि पाइ कै, फूलत नाहिं न सर तैं ॥

ऊखल लाइ भुजा धरि बाँधी, मोहनि मूरति बर तैं ।

सूर स्याम-लोचन जल बरषत जनु मुकुताहिमकर तैं ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपियाँ कहती हैं-) ‘यशोदाजी! जिसके लिये तुम (मोहनको) खोलती नहीं हो और हाथसे छड़ी नहीं रख रही हो, वह मक्खन कहो तो हम अपने घरसे ला दें । व्रजरानी ! सुनो, ऐसा तुम्हें नहीं करना चाहिये; (देखो तो) इसका मुख भयसे (उसी प्रकार) कुम्हिला गया है, जैसे चन्द्रमाकी किरणें पड़नेसे कमल सरोवरमें प्रफुल्लित नहीं हो पाता । (हाय-हाय) इस श्रेष्ठ मोहिनी मूर्तिके हाथ ऊखलसे लगाकर तुमने बाँध दिये हैं ।’ सूरदासजी कहते हैं–श्यामसुन्दरके नेत्रोंसे इस प्रकार आँसूकी बूँदें टपक रही हैं, जैसे चन्द्रमा से मोती बरसते हों ।