17. राग जैतश्री – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग जैतश्री

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कनक-रतन-मनि पालनौ, गढ़्यौ काम सुतहार ।

बिबिध खिलौना भाँति के (बहु) जग-मुक्ता चहुँधार ॥

जननि उबटि न्हवाइ कै (सिसु) क्रम सौं लीन्है गोद ।

पौढ़ाए पट पालनैं (हँसि) निरखि जननि मन-मोद ॥

अति कोमल दिन सात के (हो) अधर चरन कर लाल ।

सूर स्याम छबि अरुनता (हो) निरखि हरष ब्रज-बाल ॥

भावार्थ / अर्थ :– बढ़ईने रत्न तथा मणियोंसे जड़ा पलना बड़ी कारीगरी करके बनाया है । उसमे अनेक भाँति के खिलौने लटक रहे हैं और चारों ओर जगमुक्ताकी लड़ियाँ लगी हैं । माताने उबटन लगाकर, स्नान कराके धीरे से शिशुको गोदमें उठाया और पलने में सुलाकर वस्त्र ऊपर डाला, फिर हँसकर (पुत्र को ) देखकर माताके मनमें बड़ा आनन्द हुआ । अभी अत्यन्त कोमल हैं, केवल सात दिनके हैं, अधर, चरन तथा कर लाल-लाल हैं, सूरदासजी कहते हैं–श्यामसुन्दरकी अरुणिम छटा देखकर व्रजकी नारियाँ हर्षित हो रही हैं ।