168. राग सारंग – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग सारंग

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(माई) नैकुहूँ न दरद करति, हिलकिनी हरि रोवै ।

बज्रहु तैं कठिनु हियौ, तेरौ है जसोवै ॥

पलना पौढ़ाइ जिन्हैं बिकट बाउ काटै |

उलटे भुज बाँधि तिन्हैं लकुट लिए डाँटै ॥

नैकुहूँ न थकत पानि, निरदई अहीरी ।

अहौ नंदरानि, सीख कौन पै लही री ॥

जाकौं सिव-सनकादिक सदा रहत लोभा ।

सूरदास-प्रभु कौ मुख निरखि देखि सोभा ||

भावार्थ / अर्थ :– (एक गोपी कहती है-) ‘सखी ! तनिक भी पीड़ाका तुम अनुभव नहीं करती हो ? (देखो तो) श्यामहिचकी ले-लेकर रो रहा है । यशोदाजी ! तुम्हारा हृदय तो वज्रसे भी कठोर है । जिसे पलनेपर लिटा देनेपर भी तीव्र वायुसे कष्ट होता है, उसीको हाथ उलटे करके बाँधकर तुम छड़ी लेकर डाँट रही हो ? तुम्हारा हाथ तनिक भी थकता नहीं? (सचमुच तुम) दयाहीन अहीरिन ही हो । अरी नन्दरानी ! यह (कठोरताकी) शिक्षा तुमने किससे पायी है ?’ सूरदासजी कहते हैं कि मेरे जिस प्रभुका दर्शन पाने के लिये शंकरजी तथा सनकादि ऋषि भी सदा ललचाते रहते हैं । (माता) तुम उनके मुखकी शोभा को एक बार भली प्रकार देखो तो सही ! (फिर तुम्हारा क्रोध स्वयं नष्ट हो जायगा ।)