152. राग नट – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग नट

[212]

………..$

अनत सुत! गोरस कौं कत जात ?

घर सुरभी कारी-धौरी कौ माखन माँगि न खात ॥

दिन प्रति सबै उरहनेकैं मिस, आवति हैं उठि प्रात ।

अनलहते अपराध लगावति, बिकट बनावति बात ॥

निपट निसंक बिबादित सनमुख, सुनि-सुनि नंद रिसात ।

मोसौं कहति कृपन तेरैं घर ढौटाहू न अघात ॥

करि मनुहारि उठाइ गोद लै, बरजति सुत कौं मात ।

सूर स्याम! नित सुनत उरहनौ, दुखख पावत तेरौ तात ॥

भावार्थ / अर्थ :– (माता कहती हैं-) पुत्र ! तुम दूसरोंके यहाँ गोरसके लिये क्यों जाते हो ? घर पर ही तुम्हारी कृष्णा और धवला गायोंका मक्खन (बहुत) है, उसे माँग कर क्यों नहीं खा लिया करते ? ये सब (गोपियाँ) प्रतिदिनसबेरे-सबेरे उलाहना देनेके बहाने उठकर चली आती हैं । अन होने दोष लगाती हैं, अद्भुत बातें बनाती (गढ़ लेती) हैं ये सर्वथा निःशंक हैं, सामने होकर झगड़ा करती है, तेरे घर तेरे पुत्रका भी पेट नहीं भरता ।’ सूरदासजी कहते हैं कि इस प्रकार माता पुत्रको उठाकर गोदमें ले लेती हैं और उसकी मनुहार (विनती- खुशामद) करके रोकती हैं कि ‘श्यामसुन्दर ! नित्य उलाहना सुननेसे तुम्हारे पिता दुःख पाते (दुःखी होते) हैं ।’

[213]

……………

हरि सब भाजन फोरि पराने ।

हाँक देत पैठे दै पेला, नैकु न मनहिं डराने ॥

सींके छोरि, मारि लरिकन कौं, माखन-दधि सब खाइ ।

भवन मच्यौ दधि-काँदौ, लरिकनि रोवत पाए जाइ ॥

सुनहु-सुनहु सबहिनि के लरिका, तेरौ-सौ कहुँ नाहि ।

हाटनि-बाटनि, गलिनि कहूँ कोउ चलत नहीं, डरपाहिं ॥

रितु आए कौ खेल, कन्हैया सब दिन खेलत फाग ।

रोकि रहत गहि गली साँकरी, टेढ़ी बाँधत पाग ॥

बारे तैं सुत ये ढँग लाए, मनहीं-मनहिं सिहाति ।

सुनै सूर ग्वालिनि की बातैं, सकुचि महरि पछिताति ॥

श्यामसुन्दर ललकारते हुए बलपूर्वक (गोपीके घरमें) घुस गये, तनिक भी मनमें डरे नहीं छींके खोलकर (उनसे उतारकर) सब दही-मक्खन खाकर उस घरके लड़कों को पीटकर और सब बर्तन फोड़कर भाग गये । गोपीने जाकर देखा कि घरमें दहीका कीचड़ हो रहा है, अपने लड़कोंको उसने रोते पाया । (अब यशोदाजी के पास जाकर बोली-) ‘सुनो! सुनो! लड़के तो सभीके हैं किंतु तुम्हारे लड़के जैसे तो कहीं नहीं पाता; सभी उससे डरते हैं । वसन्त -ऋतु आने पर फाग खेलना तो ठीक है, किंतु तुम्हारा कन्हैया तो सब समय होली खेलता, तिरछी पगड़ी बाँधता है और पतली गलियोंमें (गोपियोंको) पकड़कर रोक लेता है। बचपनसे ही तुम्हारे पुत्रने ये ढंग ग्रहण कर रखे हैं । (यह कहती हुई भी वह) मन-ही-मन (श्यामके द्वारा छेड़े जानेके लिये) ललचा रही है ।सूरदासजी कहते हैं कि गोपीकी बातें सुनकर व्रजरानी संकोचमें पड़ गयी हैं और पछतावा कर रही हैं ।