158. राग गौरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग गौरी

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ह्वाँ लगि नैकु चलौ नँदरानी!

मेरे सिर की नई बहनियाँ, लै गोरस मैं सानी ॥

हमै-तुम्है रिस-बैर कहाँ कौ, आनि दिखावत ज्यानी ।

देखौ आइ पूत कौ करतब, दूध मिलावत पानी ॥

या ब्रज कौ बसिबौ हम छाड़्यौ, सो अपने जिय जानी ।

सूरदास ऊसर की बरषा थोरे जल उतरानी ॥

भावार्थ / अर्थ :– (एक गोपी कहती है-)’नन्दरानी! तनिक वहाँतक चलो ! मेरे मस्तक पर की नयी गगरी लेकर (तुम्हारे लालने) गोरस से लथपथ कर दी । हमारे और तुम्हारे में किस बातकी खीझ या शत्रुता है जो अपनी हानि (स्वयं) कर दिखायेंगी । तुम आकर अपने पुत्रके करतब देख लो कि हम (कहाँतक) दूधमें पानी मिलाती हैं (झूठ बोलती हैं ) अपने मनमें यह समझ लिया कि इस व्रजमें बसना हमें छोड़ना ही पड़ेगा ।’ सूरदासजी कहते हैं कि यह तो ऊसर पर हुई वर्षा के समान है, जहाँ थोड़ा-सा जल पड़ते ही पानी छलकने लगता है । अर्थात् थोड़ी सी सम्पत्ति या श्यामसुन्दरकी थोड़ी-सी बाल-विनोदकी कृपा पाकर ही यह ओछी गोपी अपनी सीमासे बाहर होकर इतराने लगी है ।