132. राग कान्हरौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग कान्हरौ

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चली ब्रज घर-घरनि यह बात ।

नंद-सुत सँग सखा लीन्हें, चोरि माखन खात ॥

कोउ कहति, मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ ।

कोउ कहति, मोहि देखि द्वारैं, उतहिं गए पराइ ॥

कोउ कहति किहिं भाँति हरि कौं, देखौं अपने धाम ।

हेरि माखन देउँ आछौं, खाइ कितनौ स्याम ॥

कोउ कहति, मैं देखि पाऊँ, भरि धरौं अँकवारि ।

कोउ कहति, मैं बाँधि राखौं, को सकै निरवारि ॥

सूरप्रभु के मिलन कारन, करति बुद्धि बिचार ।

जोरि कर बिधि कौं मनावति, पुरुष नंद-कुमार ॥

व्रजके घर-घरमें यह चर्चा चलने लगी कि नन्दनन्दन साथमें सखाओंको लेकर चोरीसे मक्खन खाते हैं । कोई गोपी कहती है–‘मेरे घरमें अभी दौड़कर घुस गये थे । ‘ कोई कहती है – ‘मुझे द्वारपर देखकर (जिधरसे आये थे) उधर ही भाग गये ।’ कोई कहती है-‘मैं कैसे अपने घरमें उन्हें देखूँ? और श्यामसुन्दर जितना खायँ, भली प्रकार देखकर उतना ही अच्छा मक्खन उन्हें दूँ?’ कोई कहती-‘ यदि मैं देख पाऊँ तो दोनों भुजाओंमें भरकर पकड़ लूँ।’ कोई कहती है -‘मैं बाँधकर रख लूँ, फिर उन्हें कौन छुड़ा सकता है?’ सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी से मिलने के लिये सब अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करती हैं और दोनों हाथ जोड़कर विधातासे मनाती हैं -‘हमें नन्दनन्दन ही पतिरूप में मिलें ।’