राग जैतश्री
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आजु बधाई नंद कैं माई ।
ब्रज की नारि सकल जुरि आई ॥
सुंदर नंद महर कैं मंदिर ।
प्रगट्यौ पूत सकल सुख- कंदर ॥
जसुमति-ढोटा ब्रज की सोभा ।
देखि सखी, कछु औरैं गोभा ॥
लछिमी- सी जहँ मालिनि बोलै ।
बंदन-माला बाँधत डोलै ॥
द्वार बुहाराति फिरति अष्ट सिधि ।
कौरनि सथिया चीततिं नवनिधि ॥
गृह-गृह तैं गोपी गवनीं जब ।
रंग-गलिनि बिच भीर भई तब ॥
सुबरन-थार रहे हाथनि लसि ।
कमलनि चढ़ि आए मानौ ससि ॥
मँगी -प्रेम-नदी-छबि पावै ।
नंद-सदन-सागर कौं धावैं ॥
कंचन-कलस जगमगैं नग के ।
भागे सकल अमंगल जग के ॥
डोलत ग्वाल मनौ रन जीते ।
भए सबनि के मन के चीते ॥
अति आनंद नंद रस भीने ।
परबत सात रतन के दीने ॥
कामधेनु तैं नैंकु न हीनी ।
द्वै लख धेनु द्विजनि कौं दीनी ॥
नंद-पौरि जे जाँचन आए ।
बहुरौ फिरि जाचक न कहाए ॥
घर के ठाकुर कैं सुत जायौ ।
सूरदास तब सब सुख पायौ ॥
भावार्थ / अर्थ :– सखी! आज श्री नन्दजीके यहाँ बधाई बज रही है । व्रजकी सभी नारियाँ आकर एकत्र हो गयी हैं । व्रजराज श्रीनन्दजीके सुन्दर भवनमें सभी सुखोंका निधान पुत्र प्रकट हुआ है । श्रीयशोदाजीका पुत्र तो व्रजकी शोभा है । सखी, देखो! उसकी कान्ति ही कुछ और (अलौकिक) ही है । जहाँ लक्ष्मीजी-सी देवियाँ मालिनी कहलाती हैं और बन्दनवारमें मालाएँ बाँधती घूमती हैं। आठों सिद्धियाँ द्वारपर झाडू लगाती हैं । नवों निधियाँ द्वार-भितियोंपर स्वस्तिकके चित्र बनाती हैं । जब गोपियाँ घर-घरसे चलीं, तब अनुरागमयी वीथियोंमें भीड़ हो गयी उनके करोंमें सोनेके थाल ऐसे शोभा दे रहे थे मानो अनेकों चन्द्रमा कमलोंपर बैठ-बैठकर आ गये हों (ये गोपियाँ) प्रेमसे उमड़ी नदियोंके समान शोभा दे रही हैं, जो नन्दभवनरुपी समुद्रकी ओर दौड़ती जा रही हैं । भवनोंपर मणि जटित स्वर्णकलश जगमग कर रहे हैं । आज विश्वके समस्त अमंगल भाग गये । गोप इस प्रकार घूम रहे हैं । मानो युद्धमें विजयी हो गये हों, सबकी मनो।़भिलाषा आज पूरी हो गयी है । श्रीनन्दजीने अत्यन्त आनन्दरससे आर्द्र होकर रत्नोंके सात पर्वत दान किये । जो गायें कामधेनुसे तनिक भी घटकर नहीं थीं ऐसी दो लाख गायें ब्राह्मणोंको दान कीं । जो आज नन्दजीके द्वारपर माँगने आगये, फिर कभी वे याचक नहीं कहे गये (उनसे इतना धन मिला कि फिर कभी माँगना नहीं पड़ा) सूरदासजी कहते है-मेरे घरके (निजी) स्वामी (श्रीनन्दजी) के जब पुत्र उत्पन्न हुआ, तब मैनें सब सुख पा लिया ।